हिंसा को भड़काने वाला भाषण और न्यायिक प्रतिक्रिया

परिचय

हालिया वर्षों में, साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा को भड़काने वाले भाषण भारत में एक प्रमुख चिन्ता का विषय बन गए हैं, क्योंकि राजनीतिक दल घृणा फैलाने वाले और विभाजनकारी संदेशों को फैलाने के लिए साधारण जन-मानस का उपयोग करते हैं। साम्प्रदायिक घृणा एक गम्भीर समस्या है और चूँकि भारत में कई अलग-अलग जातीय और धार्मिक समूहों वाली विविध जनसंख्या है। इसलिए, इन समूहों के बीच का तनाव हिंसा भड़काने और सार्वजनिक शान्ति को बिगाड़ने वाले भाषणों को जन्म देने वाला मंच बन गया है। 1990 के दशक के दौरान, विशेष रूप से राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के परिप्रेक्ष्य में, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं ने साम्प्रदायिक तनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण का भाषणों के द्वारा बड़े पैमाने पर उपयोग किया, जिससे साम्प्रदायिक तनाव की आग को हवा मिली और इसके परिणामस्वरूप दंगे और हिंसा हुई। सोशल मीडिया के उदय के साथ ही घृणा फैलाने वाले भाषण आसानी और बड़े पैमाने पर फैल रहे हैं, जिससे साम्प्रदायिक सद्भभाव और सामाजिक एकजुटता पर इसके प्रभाव के बारे में चिन्ताएँ उत्पन्न हो रही हैं। भारत में हिंसा को भड़काने वाले भाषणों के उद्भव को ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों ने आकार दिया है।

समय के साथ, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में हिंसा भड़काने वाले भाषणों के कई उदाहरण सामने आए हैं। राजनीतिक नेताओं द्वारा प्रचार किए जाने वाले ऐसे भाषण उनके बहिष्कारवादी कार्यनीति का उदाहरण हैं और हिंसा भड़काने के लिए उपजाऊ भूमि प्रदान करते हैं। समस्या इस तरह के भाषण के विरुद्ध कानूनों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि इन कानूनों के प्रभावी और निष्पक्ष कार्यान्वयन की कमी है। हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषण पर रोक लगाने वाले कानून अक्सर मनमाने तरीके से लागू किए जाते हैं। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना इस समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए।

हिंसा को भड़काने वाले भाषण की परिभाषा

‘हिंसा को भड़काने वाले भाषण’ की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। भारत के कानूनी ढाँचे के अनुसार ऐसे भाषण, लेख, कार्य, संकेत चिन्ह और चित्र इत्यादि जिनसे हिंसा को बढ़ावा मिलता है और समुदायों और समूहों के बीच में मतभेद को फैलाते हैं उन्हें ‘हिंसा को भड़काने वाले भाषण’ समझा जाता है।

भारत के विधि आयोग ने अपनी 267वीं रिपोर्ट में कहा कि घृणा फैलाने वाले भाषण और हिंसा भड़काने वाले भाषण के बीच एक सम्बन्ध होता है। रिर्पोट में बताया गया है: “घृणा फैलाने वाला भाषण सामान्य तौर पर नस्ल, जातीयता, लिंग, यौन अभिमुखता, धार्मिक विश्वास और इसी तरह के सन्दर्भ में आने वाले व्यक्तियों के एक समूह के विरुद्ध घृणा को उकसाना है ... अतः, भय या आतंक की स्थिति को उत्पन्न करने या हिंसा भड़काने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति की सुनने या देखने की सीमा के भीतर उपयोग किया गया लिखित या बोला गया कोई भी शब्द, संकेत चिन्ह, या चित्र घृणा फैलाने वाला भाषण होता है।”[1]

घृणा फैलाने वाले भाषण को सामान्यतया स्वतन्त्र भाषण पर प्रतिबन्ध के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, समूह या समाज के एक वर्ग को घृणा, हिंसा, उपहास या अपमान के प्रति संवेदनशील बनाने वाले संचार को रोकना या प्रतिबन्धित करना है। समकालीन समय में घृणा फैलाने वाले भाषण का अर्थ, निरे आपत्तिजनक भाषण से आगे बढ़ चुका है; इसमें ऐसे भाषण शामिल हैं जो अपमानजनक, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने वाले, भेदभावपूर्ण, भड़काऊ, या यहाँ तक ​​कि ऐसे हैं जो हिंसा के उपयोग के लिए उकसाते और प्रोत्साहित करते हैं या जिनके परिणामस्वरूप हिंसक प्रतिक्रिया होती है। इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर समाज में सद्भाव की हानि होती है और व्यवस्था बिगड़ती है। परन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि घृणा फैलाने वाला भाषण विशेष रूप से एक घृणित प्रकार का घृणा अपराध बन जाता है, जिससे घृणा अपराध के पीड़ितों को सीधे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुँचता है। यह इसके पीड़ितों को अप्रत्यक्ष तरीकों से प्रभावित करता है जिससे पीड़ितों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर भयानक प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सार्वजनिक संवाद में भागीदारी का बहिष्कार किया जाता है।[2]

संक्षेप में, हम ‘हिंसा भड़काने वाले भाषण’ को भेदभाव की एक संगठित राजनीति समझाना शुरू कर सकते हैं और इसका प्रत्युत्तर के संवैधानिक कृत्य के रूप में दिया जा सकता है। वास्तव में, जहाँ ‘हिंसा और घृणा को उकसाने वाला भाषण’ हाशिए पर पहुँचाने वाली की एक प्रणाली है, वहाँ जिम्मेदार लोगों की रणनीतिक चुप्पी के लिए भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। भले ही यह उकसाना न हों, परन्तु कम से कम यह उनके देखभाल के संवैधानिक कर्तव्य का त्याग अवश्य है। उकसाने का उद्देश्य हमेशा शारीरिक हिंसा के लिए प्रेरित करना नहीं होता है; यह अपने आप हिंसक है और इसके अन्तर्गत निरन्तर निन्दा करने और बहिष्कार के लिए उकसाया जाता है। ‘हिंसा और घृणा को भड़काने वाला भाषण’ लोगों के विरुद्ध आक्रामक, या अभद्र भाषण या यहाँ तक कि सरकार के विरोध में तीखी शिकायतों का सन्दर्भ नहीं है। यह ऐसा भाषण है जो एक समुदाय को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुँचाकर उसे वास्तविक भौतिक नुकसान पहुँचा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून संस्था ने एक त्रिभागीय परीक्षा[3] विकसित की है जो यह निर्धारित करती कि किसी विशेष प्रकार के भाषण पर अंकुश लगाया जाना चाहिए या नहीं। मानव अधिकार की कटौती करने से पहले निम्नलिखित मानकों को पूरा किया जाना चाहिए:

कानूनी निर्देश: इस नियम के अनुसार, लगाया गया प्रतिबन्ध कानून द्वारा निर्धारित होना चाहिए। जिन तरीकों से अधिकार में कटौती की जाती है उन्हें उचित प्रक्रियाओं और कानून के स्पष्ट प्रावधानों के द्वारा पारित किया जाना चाहिए।

वैध उद्देश्य: उपाय से सीधे तौर पर एक वैध लक्ष्य पूरा होना चाहिए।

आवश्यकता और अनुपात: निश्चित रूप से ऐसे उपाय की आवश्यकता होनी चाइए। प्रतिबन्ध को किसी भी ऐसे वैसे कारण से नहीं लगाया जा सकता। किसी भी अधिकार को प्रतिबन्धित करने की तत्काल आवश्यकता होनी चाहिए। साथ ही, प्रतिबन्ध को अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक से अधिक नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए।

कानूनी उपचार  

शेक्सपियर एक प्रासंगिक प्रश्न पूछा जिसकी गूँज आज भी सुनाई देती  है: “सबसे अधिक पाप कौन करता है, परीक्षा लेने वाला या जिसकी परीक्षा होती है?”[4] भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह के कानून में यह स्पष्ट कर दिया कि हिंसा भड़काने वाला ही दोषी व्यक्ति है। अतः, परीक्षा करने वाला सबसे अधिक पाप करता है।

भारत में, धर्म, जातीयता, संस्कृति, या नस्ल के आधार पर हिंसा को भड़काने वाला भाषण प्रतिबन्धित है। निम्नलिखित बातें अत्याधिक महत्वपूर्ण और प्रमुख हैं:

भारतीय दण्ड संहिता, 1860

  • भा.द.सं. (IPC) की धारा 214ए के अन्तर्गत राजद्रोह दण्डनीय अपराध है।
  • भा.द.सं. की धारा 153ए के अन्तर्गत ‘धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के प्रति प्रतिकूल कार्य करना दण्डनीय अपराध है।
  • भा.द.सं. की धारा 153बी के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले आरोप लगाना और दावे करना दण्डनीय है।
  • भा.द.सं. की धारा 295ए के अन्तर्गत जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से किए गए ऐसे सभी कृत्य दण्डनीय हैं, जिनका उद्देश्य किसी भी वर्ग के धर्म या धार्मिक आस्थाओं का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना है।
  • भा.द.सं. की धारा 298 के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से जानबूझकर बोले गए शब्द, इत्यादि दण्डनीय हैं।
  • भा.द.सं. की धारा 505(1) और (2) के अन्तर्गत ऐसे किसी भी बयान, अफवाह, या रिपोर्ट का प्रकाशन या प्रसार दण्डनीय हैं जो सार्वजनिक अनिष्ट और वर्गों के बीच शत्रुता, घृणा या दुर्भावना उत्पन्न करती है।

 

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951

  • इस अधिनियम की धारा 8 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवैध उपयोग के लिए दोषी ठहराया जाता है तो उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
  • धारा 123(3ए) और धारा 125 किसी चुनाव के सम्बन्ध में धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर शत्रुता को बढ़ावा देने को भ्रष्ट चुनावी आचरण के रूप में प्रतिबन्धित करती है और इस पर रोक लगाती है।

 

नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955

  • धारा 7 के अन्तर्गत मौखिक या लिखित शब्दों या संकेतों या चित्रों या अन्य साधनों के माध्यम से अस्पृश्यता के लिए उकसाना और प्रोत्साहित करना दण्डनीय है।

 

धार्मिक संस्था (दुरुपयोग निवारण) अधिनियम, 1988

  • धारा 3(जी) किसी धार्मिक संस्थान या उसके प्रबन्धक को विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषाई या क्षेत्रीय समूह या जातियों या समुदाय के बीच शत्रुता, घृणा, दुर्भावना की भावनाओं को बढ़ावा देने या बढ़ावा देने का प्रयास करने के लिए संस्थान से सम्बन्धित या उसके नियंत्रण में आने वाले किसी भी परिसर का उपयोग करने की अनुमति देने से प्रतिबन्धित करती है।

 

केबल टेलीविजन नेटवर्क विनियमन अधिनियम, 1995

  • इस अधिनियम की धारा 5 और 6 के अन्तर्गत केबल नेटवर्क के माध्यम से निर्धारित कार्यक्रम (कोड) नियमावली या विज्ञापन नियमावली का उल्लंघन करने वाले किसी भी कार्यक्रम का प्रसारण या पुनः प्रसारण प्रतिबन्धित है। इन नियमावलियों को केबल टेलीविजन नेटवर्क नियम, 1994 के क्रमशः नियम 6 और 7 में परिभाषित किया गया है।

 

चलचित्र अधिनियम, 1952

  • धारा 4, 5बी, और 7 फिल्म प्रमाणन बोर्ड को किसी फिल्म की स्क्रीनिंग को प्रतिबन्धित और विनियमित करने का अधिकार प्रदान करती हैं।

 

भारतीय प्रेस परिषद अधिनियम, 1978

  • धारा 14 के अन्तर्गत भारतीय प्रेस परिषद अर्थात् प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पास पत्रों या समाचार संस्थाओं के विरुद्ध की गई शिकायतों के आधार पर पत्रकारिता की नैतिकता के उल्लंघन और जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचाने, या अन्य कृत्यों के लिए संस्थाओं को दोषी ठहराने की शक्ति प्राप्त है।
  • इसके अलावा, प्रेस (जाँच की प्रक्रिया) विनियमन, 1979, जाँच समिति की शक्तियों और कार्यों पर आधारित नियम निर्धारित करता है। संरचना और उद्देश्यों और शक्तियों के परिणामस्वरूप, भारतीय प्रेस परिषद एक अर्ध-न्यायिक निर्णायक निकाय के रूप में कार्य करती है।

 

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

  • धारा 95 राज्य सरकार को उन प्रकाशनों को जब्त करने का अधिकार देती है जो भा.द.सं. की धारा 124ए, 153ए, 153बी, 292, 293, या 295ए के अन्तर्गत दण्डनीय हैं।
  • धारा 107 कार्यकारी मजिस्ट्रेट को किसी व्यक्ति को शान्ति भंग करने या सार्वजनिक सौहाद्र को बिगड़ने करने या किसी ऐसे गलत कार्य करने से रोकने का अधिकार देती है, जिससे सम्भवतः शान्ति भंग हो सकती है या सार्वजनिक सौहाद्र बिगड़ सकता है।
  • धारा 144 जिला मजिस्ट्रेट, एक उप-विभागीय मजिस्ट्रेट, या विशेष रूप से राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट को उपद्रव या खतरे की आशंका के तत्काल मामलों में आदेश जारी करने का अधिकार प्रदान करती है। उपरोक्त अपराध संज्ञेय हैं। इसलिए इनसे नागरिकों की स्वतंत्रता पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है और इसलिए यह धारा एक पुलिस अधिकारी को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और P.C. की धारा 155 के अनुसार वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने का अधिकार प्रदान करती है।

ऊपर बताए गए कानूनी प्रावधानों को छोड़कर, 267वें विधि आयोग की रिपोर्ट में घृणा फैलाने वाले भाषण से निपटने के लिए भारतीय दण्ड संहिता में धारा 153सी और 505ए को सम्मिलित करने की अनुशंसा की गई थीं। धारा 153 सी में संक्षेप में कहा गया है कि ‘जो कोई भी धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय, लिंग, लैंगिक पहचान, यौन अभिमुखता, जन्म स्थान, निवास, भाषा, विकलांगता या जनजाति के आधार पर गम्भीर रूप से धमकाने वाले शब्दों का उपयोग करेगा, उसे एक अवधि के लिए कारावास का दण्ड दिया जाएगा। जिसकी आवधिक को दो वर्ष जा सकता है और जुर्माने को 5000 रुपये तक बढ़ाया जा सकता है या दोनों हो सकते हैं।’ जबकि धारा 505ए में संक्षेप में कहा गया है कि ‘जो कोई भी जानबूझकर उपरोक्त आधार पर सार्वजनिक रूप से ऐसा कोई लेख, संकेत चिन्ह या अन्य चित्र इत्यादि प्रदर्शित करता है जो गम्भीर रूप से धमकाने वाला या अपमानजनक है, उसे एक अवधि के लिए कारावास से दण्डित किया जाएगा जिसकी अवधि को एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और ₹5000 तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है या दोनों हो सकते हैं।[5]

इससे वास्तव में हिंसा भड़काने वाले भाषण के एक या दूसरे रूप से सम्बन्धित कानूनी प्रावधानों का एक जटिल जाल बन जाता है, जिससे यह समझना लगभग असम्भव हो जाता है कि भारतीय क्षेत्राधिकार के भीतर किसी भाषण के किस हिस्से पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।

वर्तमान कमियाँ

भारत में हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषण पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी ढाँचा कई तरह के तरीकों का उपयोग करता है। मुख्य रूप से कानून, जैसा कि हमने पिछले अनुभाग में देखा है, कुछ प्रकार के घृणा फैलाने वाले भाषण देने को अपराध बनाता है। इस अपराध के लिए अलग-अलग अवधि का कारावास, जुर्माने के साथ या बिना जुर्माने के दण्ड दिया जाता है। इनमें से अधिकतर प्रावधान संज्ञेय होने के साथ-साथ गैर-जमानती और गैर-शमनीय भी हैं। वास्तव में, यह बात कानूनी प्रावधानों को अत्याधिक कड़ा और  गम्भीर प्रभावों वाला बनाती है। इसके अलावा, प्रचार के माध्यम अर्थात् प्रिंट, टेलीविज़न या इंटरनेट पर घृणा फैलाने वाली सामग्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है, और सेंसर कर दिया जाता है, या होस्ट साइट को बन्द कर दिया जाता है। प्रिंट के मामले में, दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत अधिकारियों के पास विचाराधीन सामग्री को जब्त करने की भी शक्ति होती है।

हालाँकि, हिंसा भड़काने वाले भाषण का विनियमन एक चुनौतीपूर्ण प्रयास सिद्ध हुआ है। हिंसा भड़काने वाले भाषण पर प्रतिबन्ध का विरोध भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ इसके टकराव के कारण किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उचित प्रतिबन्धों वाले इसके विनियमन के बीच बहुत पतली सी रेखा होती है। हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषण पर प्रतिबन्ध अक्सर भाषण और अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतंत्रता को कुचल देते हैं।

अपने उग्र रूप में, हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषणों ने भयानाक घृणा फैलाने वाले अपराधों को जन्म दिया है जैसा कि हाल ही में भारत में देखा गया है, जैसे कि सम्प्रदायिक दंगे, धार्मिक समुदायों के बीच होने वाली हिंसक झड़पों की श्रृंखला, ये सभी विभाजनकारी समूहों द्वारा प्रचारित भड़काऊ भाषण के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए हैं। वीभत्स हत्याओं की घटनाएँ व्यापक रूप से रिपोर्ट की गईं, जिनमें दूसरे समूह/समुदाय के प्रति ‘घृणा’ ने भीड़ द्वारा हत्या के रूप में हिंसा का विशेष रूप से विकृत रूप ले लिया। इन स्थितियों में, शब्दों को उनके सबसे खतरनाक रूप अर्थात् “...व्यक्तियों और समूहों पर घात लगाने, आतंकित करने, घायल करने, अपमानित करने और प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाले हथियार के रूप में” उपयोग किया गया। घृणा फैलाने वाले भाषण से होने वाले स्पष्ट नुकसान को देखते हुए, अब समय आ गया है कि हम वर्तमान ढाँचे से आगे बढ़ें और ऐसे सर्वोत्तम उपायों की खोज करें जिन्हें कानूनी ढाँचे के अलावा घृणा से भरे भाषण की समस्या से निपटने के लिए अपनाया जा सकता है।

हिंसा भड़काने वाले भाषण के परिणामस्वरूप होने वाले कुछ घृणा अपराधों को सार्वजनिक उपद्रव या अव्यवस्था से सम्बन्धित भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के अन्तर्गत सम्मिलित किया जा सकता है और उन पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है, परन्तु फिर भी वे ‘हिंसा भड़काने वाले भाषण’ की श्रेणी में नहीं आते, जो अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने या उन्हें भयभीत महसूस कराने की एक प्रणाली है। निरन्तर दिए जाने वाले घृणा से भरे प्रवचनों के परिणामस्वरूप इनके निशाने पर आने वाले समुदायों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हाशिए पर जाने के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं, परन्तु जब तक इन हिंसाओं पर केंद्रीय मीडिया और न्यायिक अधिकारियों का ध्यान जाता है, तब तक होने वाला नुकसान आँकलन से परे हो जाता है।

अक्सर पुलिस अधिकारियों द्वारा हिंसा और घृणा को भड़काने वाले इन भाषणों के परिणामों का आँकलन इन अपराधों की व्याख्या और इसके कानूनी उपायों के हिस्से के रूप में न्यायपालिका द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों को लागू किए बिना पक्षपातपूर्ण तरीके से किया जाता है। कानून प्रवर्तन अधिकारियों को नुकसान का आँकलन आहत व्यक्तियों की संख्या, उन्हें हुई असुविधा, और उसके परिणामस्वरूप उनके भड़कने के आधार पर करते हैं। पुलिस अधिकारी खुद को भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के पारम्परिक रूप से समझे जाने वाले और सीमित दायरे तक ही सीमित रखते हैं और भड़काऊ भाषण के अपराधियों को प्रत्युत्तर देते समय किसी भी परिवर्तनशील संदर्भ को लागू नहीं करते हैं। उन्हें उक्त प्रभाव को समझने के लिए अपराधी के भाषण से उत्पन्न प्रभाव और अपराधी की स्थिति को देखना चाहिए। इनमें से प्रत्येक अपराधी को निवारक सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए दण्ड दिया जाना चाहिए। यह आवश्यक हो जाता है क्योंकि घृणा फैलाने वाले भाषण का नुकसान इतना व्यापक है कि यह प्रत्यक्ष से परे चला जाता है और मानव मन में व्याप्त हो जाता है और अपने पीछे ऐसे स्थायी नुकसान को छोड़ जाता है जो शारीरिक नुकसान से अधिक समय तक बना रहता है। इसलिए, घृणा फैलाने वाले भाषण से निपटने के दृष्टिकोण को आवश्यक रूप से एक अधिक सूक्ष्म और परिष्कृत प्रतिक्रिया के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है जिसकी शुरुआत इसके उस बहु-मुखी जल दैत्य रूप को वश में करने से हो सकती है जो वर्तमान में घृणा फैलाने वाला भाषण बन गया है।

पुलिस द्वारा पूरी तत्परता से यह तर्क दिया जा सकता है कि बहुसंख्यकवाद विरोधी भाषण सम्भवतः अधिक लोगों के लिए भड़काऊ होता है और इसलिए इससे हिंसा भड़कने की अधिक सम्भावना होतीहै, और इसलिए अधिक असंतुष्ट और अल्पसंख्यक समूहों के अधिक सदस्य कहते हैं कि मुस्लिम, ईसाई, दलित और आदिवासी शत्रुता या वैमनस्य भड़काने के आरोप में स्वयं को जेल में पाते हैं। कानून प्रवर्तन और निचली अदालतें वक्ताओं की “भली मनसा” के व्यक्तिपरक आँकलन पर निरन्तर भरोसा करती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे इनके जैसे भाषणों/वाक्यांशों की घटनाओं पर अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं, जो वक्ता द्वारा पहुँचाए जाने वाले नुकसान की सम्भावना के उनके अपने पक्षपाती मूल्यांकन पर निर्भर करता है।

कानून और नीति के विस्तृत ढाँचे के बावजूद हिंसा भड़काने वाले भाषण से उत्पन्न होने वाले घृणा अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। घृणा अपराधों में भारी वृद्धि किसी ढीले-ढाले कानून के कारण नहीं है, बल्कि इन कानूनों के त्रुटिपूर्ण कार्यान्वयन के कारण है। जब बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की लड़ाई की बात आती है तो भारत को हमेशा कानूनों के कार्यान्वयन में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हिंसा भड़काने वाले भाषण पर नियंत्रण के साथ-साथ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आवश्यक संतुलन घृणा अपराधों में न्याय करने के लिए सबसे बड़ी बाधा है। हिंसा और घृणा को भड़काने वाले भाषण को विनियमित करने की चुनौतियों के लिए एक बेहतर स्पष्ट कानूनी ढाँचे की आवश्यकता है क्योंकि हिंसा और घिरना को भड़काने वाले भाषण के परिणामों को पलटा नहीं जा सकता है। हिंसा भड़काने वाले भाषण से जो नुकसान होता है वह न केवल हानिकारक होता है बल्कि उसके बेहद खतरनाक परिणाम होते हैं। मौजूदा कानूनी ढाँचे का कार्यान्वयन एक सीमित क्षेत्र में काम करता है। हिंसा भड़काने वाले भाषण से समाज को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही पीड़ित के पुनर्वास या निवारण के किसी साधन के लिए जगह होती है। इसलिए, समय की यह माँग है कि हिंसा भड़काने वाले भाषण पर प्रभावी प्रतिक्रिया के उत्तर की खोज में आपराधिक कानून की कठोरता से परे देखा जाए।

न्यायिक प्रतिक्रिया

प्रसिद्ध अमेरिकी न्यायाधीश लुईस ब्रैंडिस ने एक बार कहा था कि जब तक “जवाबी भाषण” का समय था तब तक अप्रिय भाषण का उपाय उससे अधिक अप्रिय भाषण था, न कि जबरन चुप्पी। लगभग उसी समय, महात्मा गाँधी ने लिखा था कि नागरिकों की सभाओं को क्रांतिकारी परियोजनाओं पर भी चर्चा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, राज्य केवल तभी हस्तक्षेप करे जब हिंसा वास्तव में फैल चुकी हो।

दोनों ही व्यक्ति स्वतंत्र भाषण, और व्यक्ति और राज्य के बीच के सम्बन्ध की किसी भी समझ के अग्रभाग और केंद्र में स्वायत्तता के विचार के प्रति प्रतिबद्ध थे। हालाँकि, कभी-कभी कम स्वायत्तता की स्थितियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनमें राज्य को राज्य के अभिभावक पद के सिद्धान्त को अपनाते हुए आसन्न अराजक कार्यों के लिए उकसाने वाले भाषणों को दण्डित करने और नियंत्रित करने और सबके कल्याण और सद्भाव के लिए कदम बढ़ाना चाहिए।  हालाँकि ऐसी परिस्थितियाँ बार-बार नहीं आती हैं, फिर भी न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की राज्य की आवश्यकता की गहराई से जाँच करें। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हिंसा भड़काने वाले भाषण पर प्रतिबन्ध के बीच भेद को समझाना और संतुलन स्थापित करना अब भारतीय संवैधानिक परिदृश्य में स्थापित न्यायिक ज्ञान का विषय बन गया है।

इस आधार पर लगाए गए प्रतिबन्धों के सन्दर्भ में कि कुछ प्रकार के भाषणों का परिणाम हिंसा या वास्तविक विनाश होगा, विचार के विषय ने “निकट” जाँच का रूप ले लिए है: अर्थात्, राज्य भाषण और हिंसा के बीच के कारणात्मक सम्बन्ध के किस स्तर पर कार्रवाई कर सकता है?

प्रारम्भ: राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य[6]

लोहिया का मामला सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण स्वतंत्र भाषण के फ़ैसलों में से एक है। यह उस न्यायशास्त्र से एक निर्णायक विच्छेद का प्रतीक है जिसे न्यायालय ने 1950 के दशक में विकसित किया था।

1950 के दशक के अन्त में, प्रसिद्ध समाजवादी नेता, राम मनोहर लोहिया पर केवल यह काम करने के लिए मुकदमा चलाया गया था: नागरिकों को अपने करों का भुगतान न करने के लिए प्रोत्साहित करना। इस मामले में लागू कानून एक औपनिवेशिक कानून था जिसके अन्तर्गत लोहिया का भाषण प्रतिबन्धित था और इसकी संवैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। राज्य ने तर्क दिया कि करों का भुगतान न करने के आह्वान जैसी अहानिकर बात भी एक ऐसी “चिंगारी” हो सकती है जो एक दिन देश को क्रान्ति की आग में झोंक देगी। हालाँकि, न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया। न्यायालय ने यह टिप्पणी कही कि राज्य को भाषण और हिंसा के बीच एक “निकटतम” या “आसन्न” सम्बन्ध को स्थापित करना चाहिए, न कि केवल काल्पनिक या दूरस्थ सम्भावनाओं पर भरोसा करना चाहिए।

प्रगति: एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम[7]

केवल 2011 में — लोहिया के मामले के 50 से अधिक वर्षों के बाद — ही निकटता के सिद्धान्त का वास्तविक प्रभाव पड़ना शुरू हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने बीच के वर्षों में एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम मामले में लोहिया के परीक्षण में सुधार किया, जिसमें उसने कहा कि भाषण और सार्वजनिक अव्यवस्था के बीच का सम्बन्ध “बारूद के ढेर में चिंगारी” के जैसा होना चाहिए। इस मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करने के लिए प्रत्यक्ष और स्पष्ट खतरे का परीक्षण करने का प्रस्ताव दिया गया था, यानी, प्रत्याशित खतरा दूरस्थ, अनुमानित या दूर की कौड़ी नहीं होना चाहिए। इसका अभिव्यक्ति के साथ निकटतम और सीधा सम्बन्ध  होना चाहिए। विचार की अभिव्यक्ति सार्वजनिक हित के लिए आन्तरिक रूप से खतरनाक होनी चाहिए।

घृणा फैलाने वाले भाषण और विधि आयोग की आवश्यकता: प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ[8]

प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि, ‘भेदभाव का विचार घृणा फैलाने वाले भाषण के मूल में होता है।’ इसका प्रभाव केवल इसके निंदात्मक मूल्य से नहीं मापा जाता है, बल्कि इससे भी मापा जाता है कि यह लोगों के एक समूह को कितनी सफलतापूर्वक और व्यवस्थित रूप से हाशिए पर धकेलता है। सर्वोच्च न्यायालय ने महसूस किया कि घृणा फैलाने वाले भाषण का मुद्दा भारत के विधि आयोग द्वारा गहन जाँच के योग्य है, यदि वह उचित समझे, तो घृणा फैलाने वाले भाषण की अभिव्यक्ति को परिभाषित करने पर विचार करे और संसद के समक्ष सिफारिश करे कि वह घृणा भरे भाषण के खतरे को रोकने के लिए चुनाव आयोग को मजबूत करे भलाई ही भाषण कभी भी दिया गया हो। इस मामले में इस बात पर जोर दिया गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कभी-कभी लोकतांत्रिक जीवन के मूल तत्व — सार्वजनिक व्यवस्था और कानून के शासन के संरक्षण — को संरक्षित करने के लिए सामाजिक हितों, जरूरतों और आवश्यकताओं के लिए उचित अधीनता के अधीन लाना पड़ सकता है।

भेद स्थापित किया जाना: श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ[9]

प्रसिद्ध श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को रद्द कर दिया, जिसमें ऑनलाइन भाषण को “बेहद आक्रामक” या “खतरनाक” अपराध घोषित कर दिया ज्ञ था। पिछले फैसलों विभिन्न पहलुओं को जोड़ते हुए, न्यायालय ने “वकालत” और “भड़काना” के बीच भेद स्थापित किया और कहा कि केवल भड़काने को संवैधानिक रूप से प्रतिबन्धित किया जा सकता है।

इस भेद के मूल में यह दार्शनिक विचार है कि स्वायत्त व्यक्तियों के रूप में, हम सभी भाषण प्राप्त करने और सुनने, उसके गुणों के आधार पर उसका मूल्यांकन करने और स्वयं यह निर्णय लेने के हकदार हैं कि हम उससे सहमत हैं या नहीं। जब राज्य यह निर्णय स्वयं लेता है तो वह व्यक्तियों की स्वायत्तता का अनादर करता है, और इस आधार पर भाषण तक पहुँच को अवरुद्ध कर देता है कि व्यक्ति इसे सुनकर गलत विचार रख सकते हैं, या अवैध काम कर सकते हैं।

परिवर्तनीय सन्दर्भ का सिद्धान्त: अमीश देवगन बनाम भारत संघ[10]

अमीश देवगन बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘परिवर्तनीय सन्दर्भ’ के सिद्धान्त को मान्यता दी है और कहा कि प्रासंगिक रूप से “सभी भाषण एक जैसे नहीं होते हैं। यह न केवल समूह संबद्धता के कारण होता है, बल्कि एक दबंग समूह के एक कमजोर और भेदभाव से पीड़ित समूह के विरुद्ध घृणा वाले भाषण के सन्दर्भ में भी है, और घृणा भरे भाषण का प्रभाव उस व्यक्ति पर भी निर्भर करता है जिसने ये शब्द कहे हैं।’’ दूसरे शब्दों में, भाषण से होने वाले नुकसान को लक्षित व्यक्ति या समुदाय पर पड़ने वाले भौतिक प्रभाव के सन्दर्भ में विभेदित किया जाता है।

सुरंग में रोशनी: कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य[11]

एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, संविधान पीठ के न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम ने स्वयं और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति बी.आर. की ओर से बहुमत से पारित फैसला लिखा। गवई, और ए.एस. बोपन्ना ने इस बात पर प्रकाश डाला कि किसी मंत्री का एक बयान एक संवैधानिक अपकृत्य के रूप में तब कार्रवाई योग्य होगा यदि इस तरह के बयान से राज्य के अधिकारियों द्वारा कोई कार्य या चूक होती है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति या नागरिक को नुकसान होता है। “संविधान के भाग III के अन्तर्गत एक नागरिक के अधिकारों से असंगत एक मंत्री द्वारा दिया गया एक बयान, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो सकता है और संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता है। परन्तु यदि ऐसे बयान के परिणामस्वरूप, अधिकारियों द्वारा कोई चूक या अपराध किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति/नागरिक को क्षति या नुकसान होता है, तो यह संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है।

विशेष रूप से, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने किसी व्यक्ति या नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले अपमानजनक या प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने वाले बयान के लिए संवैधानिक अपकृत्य कानून के अन्तर्गत एक मंत्री के दायित्व के सम्बन्ध में एक अलग दृष्टिकोण अपनाया। जबकि पीठ में उनके सहयोगियों ने कहा कि ऐसे  मंत्री के बयानों के लिए हर्जाना माँगा जा सकता है, जो आधिकारिक क्षमता में नहीं दिए गए हैं, बशर्ते कि इस तरह के बयान के परिणामस्वरूप राज्य के अधिकारियों द्वारा कोई कार्य या चूक हुई हो, जिससे क्षति या नुकसान हुआ हो, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस तरह के बयानों को एक मानक के रूप में, अपने रिट क्षेत्राधिकार का उपयोग करने वाले संवैधानिक न्यायालयों के समक्ष चुनौती देने की व्यावहारिक कठिनाई पर प्रकाश डाला। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि, “भारत के प्रत्येक नागरिक को सचेत रूप से अपने भाषण पर संयम रखना चाहिए और अनुच्छेद 19(1)(ए) के अन्तर्गत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग केवल उसी अर्थ में करना चाहिए जैसा कि संविधान के निर्माताओं द्वारा इसके उपयोग किए जाने की मंशा थी। यह अनुच्छेद 19(1)(ए) की वास्तविक विषय-वस्तु है जो नागरिकों को ऐसे बयान देने की बेलगाम स्वतंत्रता नहीं देती है जो कटु, अपमानजनक, अनुचित हैं, जिनका कोई मुक्तिदायक उद्देश्य नहीं है और जो किसी भी तरह से विचारों के संचार के तुल्य नहीं हैं। अनुच्छेद 19(1)(ए) एक बहुआयामी अधिकार प्रदान करता है, जो भाषण और अभिव्यक्ति के कई वर्गों को राज्य के हस्तक्षेप से बचाता है। हालाँकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवाधिकार आधारित लोकतंत्र में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार किसी नागरिक द्वारा दिए गए ऐसे बयानों की रक्षा नहीं करता है, जिससे साथी नागरिक की गरिमा पर प्रहार होता है। भाईचारा और समानता, जो हमारी संवैधानिक संस्कृति का आधार है और जिस पर अधिकारों की अधिरचना का निर्माण किया गया है, ऐसे अधिकारों को इस तरह से नियोजित करने की अनुमति नहीं देते हैं कि दूसरे के अधिकारों पर हमला किया जाए।”

सफलता: शाहीन अब्दुल्ला बनाम भारत संघ[12]

विशेष रूप से अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा अपराधों के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए इस मामले में घृणा फैलाने वाले भाषण पर अंकुश लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए निर्देश स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के प्रस्तावना लक्ष्यों को बनाए रखने में सफल हुए हैं जो कि हमारे संविधान में अंतर्निहित मूलभूत मूल्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को भा.द.सं.  की धारा 153ए, 153बी, 295ए और 506 इत्यादि जैसे अपराधों में बिना किसी शिकायत के स्वत: एफआईआर दर्ज करने और भाषण देने वाले के धर्म की परवाह किए बिना कार्रवाई करने का निर्देश दिया ताकि प्रस्तावना में परिकल्पित भारत का धर्मनिरपेक्ष चरित्र संरक्षित रहे। शीर्ष न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि घृणा फैलाने वाले भाषण की घटनाओं के विरुद्ध कार्रवाई करने में विफलता - चाहे ऐसा भाषण देने वाले का धर्म कोई भी हो - न्यायालय की अवमानना होगी। घृणा फैलाने वाले भाषण पर अंकुश लगाने के लिए अंतरिम निर्देशों के इस सूची को जारी करते समय, यह कहा गया था, “जब तक विभिन्न धार्मिक समुदाय सद्भाव में रहने के लिए उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक भाईचारा स्थापित नहीं हो सकता है।”[13]

निष्कर्ष और आगे का मार्ग

सरकारों और न्यायालयों के लिए स्वतंत्र भाषण का अधिकार प्रदान करने और नागरिकों को खतरनाक भाषण से बचाने के बीच में संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अन्तर्गत, घृणा फैलाने वाले भाषण या हिंसा भड़काने वाले भाषण की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है, क्योंकि राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गैर-भेदभाव और समानता के सम्बन्ध में यह अवधारणा अभी भी व्यापक रूप से विवादित है। हिंसा भड़काने वाले भाषण की स्पष्ट परिभाषा होनी चाहिए, ताकि कानूनों को मनमाने ढंग से  नहीं बल्कि स्थापित कानून के प्रावधानों के अनुसार लागू किया जा सके। न्यायपालिका को हिंसा भड़काने वाले भाषण की स्पष्ट व्याख्या को बढ़ावा देना चाहिए। जिम्मेदारीपूर्ण भाषण संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत दी गई स्वतंत्रता का सार है। स्वायत्तता के सिद्धान्त और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धान्त के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक यह सुनिश्चित करना है कि इस स्वतंत्रता का प्रयोग किसी व्यक्ति या समाज के वंचित वर्ग को हानि पहुँचाने के लिए न किया जाए। भारत जैसे जाति, पंथ, धर्म और भाषाई आधार पर विविधता वाले देश में यह समस्या एक बड़ी चुनौती है।

निष्कर्ष में, भारत में हिंसा भड़काने वाले भाषण से निपटने के लिए एक बहुआयामी और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें कानूनी ढाँचे, शिक्षा, मीडिया साक्षरता और सामाजिक जुड़ाव पर विचार किया जाता है। हिंसा भड़काने वाले भाषण के बड़े पैमाने पर प्रसार में घृणा को बढ़ावा देने, सामाजिक एकता को नष्ट करने और राष्ट्र के लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर करने की क्षमता है। इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए, भारतीय अधिकारियों और न्यायपालिका को ऐसे मौजूदा कानून को मजबूत करके लागू करना चाहिए जो हिंसा भड़काने वाले भाषणों पर रोक लगाता है, साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन न करते हों। इसे घटनाओं की निगरानी और सूचना के लिए मजबूत तंत्र स्थापित करके और अपराधियों को जवाबदेह ठहराने के लिए तेज और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रियाओं को लागू करके हासिल किया जा सकता है।

हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषण को रोकने में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों को समावेशिता, विविधता और विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने को प्राथमिकता देनी चाहिए। मीडिया साक्षरता कार्यक्रमों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने से व्यक्तियों को डिजिटल क्षेत्र में घृणा फैलाने वाले भाषण का आलोचनात्मक विश्लेषण करने और उन्हें चुनौती देने के लिए सशक्त बनाया जा सकता है।। मीडिया का भी यह दायित्व है कि वह रचनात्मक भूमिका निभाए। पत्रकारों और मीडिया संगठनों को पेशेवर नैतिकता का पालन करना चाहिए और संतुलित और निष्पक्ष सूचना प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें सनसनी फैलाने से बचना चाहिए और सहिष्णुता, समझ और संवाद को बढ़ावा देकर घृणा भरे भाषण का सक्रिय रूप से मुकाबला करना चाहिए।

सहिष्णुता और सम्मान की संस्कृति को बढ़ावा देने में सामाजिक सहभागिता महत्वपूर्ण है। नागरिक समाज संगठनों, धार्मिक नेताओं और सामुदायिक समूहों को अंतरधार्मिक सद्भाव और सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा देने के लिए सहयोग करना चाहिए। संवाद, समझ और सहानुभूति को प्रोत्साहित करने वाली पहल विभाजन की खाई को पाटने और घृणा भरे भाषण का मुकाबला करने में अत्याधिक सहायता कर सकती है। इसके अलावा, प्रौद्योगिकी कंपनियों और सोशल मीडिया मंचों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के सिद्धान्तों का सम्मान करते हुए घृणा फैलाने वाले भाषण की सामग्री की पहचान करने और उसे हटाने के लिए सक्रिय कदम उठाने चाहिए। इन मंचों और सरकार के बीच सहयोग ऑनलाइन हिंसा और घृणा भड़काने वाले भाषण से निपटने के लिए प्रभावी नीतियों, दिशानिर्देशों और उपकरणों को विकसित करने में सहायता कर सकता है।

अन्त में, घृणा फैलाने वाले भाषण से निपटने के लिए सरकार, नागरिक समाज, शैक्षणिक संस्थानों, मीडिया संगठनों और व्यक्तियों सहित सभी हितधारकों के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। समावेशिता, विविधता और सम्मान को महत्व देने वाला वातावरण बनाने के लिए मिलकर काम करके, भारत एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकता है जो सभी के लिए लोकतंत्र, सद्भाव और सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों को बनाए रखता है।

ग्रंथसूची

[1] भारतीय विधि आयोग, रिपोर्ट संख्या 267, “घृणा फैलाने वाले भाषण”, मार्च 2017.

[2] संसदीय सभा, यूरोप की परिषद,  अनुशंसा 1805 “व्यक्तियों के विरुद्ध उनके धर्म के आधार पर ईशनिंदा, धार्मिक अपमान और घृणा फैलाने वाला भाषण” (2007) : http://assembly.coe.int/nw/xml/XRef/Xref-XML2HTML-en.asp?fileid=17569&lang=en पर उपलब्ध है।

[3] यूएनएचआरसी, “सामान्य टिप्पणी 34” 102वाँ सत्र जुलाई 11-29, 2011 (21 जुलाई, 2011) यूएन डॉक सीसीपीआर/सी/जीसी/34, अनुच्छेद 22; संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद, अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव की रोकथाम और संरक्षण पर आधारी संयुक्त राष्ट्र उप-आयोग”, इकतालीसवाँ सत्र (1984) “नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय अनुबन्ध में प्रावधानों की सीमा और अल्पीकरण पर सिराकुसा सिद्धान्त” (सितम्बर) 28, 1984) पूरक अंश यूएन डॉक ई/सीएन.4/1984/4 अनुच्छेद 17 (तत्पश्चात् सिराकुसा सिद्धान्त)।

[4] एंजेलो इन मेजर फॉर मेजर अवेलेबल एट टेम्प्टर या टेम्पटेड? - myShakespeare.me

[5] कानूनी शोधकर्ता, “घृणास्पद भाषण पर आधारित एक भारतीय कानून: विरोधाभास और बातचीत की कमी”, यहाँ उपलब्ध है: https://cjp.org.in/an-indian-law-on-hate-speech-the-contradictions-and-lack-of-conversation/

[6] राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य, एआईआर 1966 एससी 740

[7] एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम, 1989 (2) एससीसी 574

[8] प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ, एआईआर 2014 एससी 1591

[9] श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ, एआईआर 2015 एससी 1523

[10] अमीश देवगन बनाम भारत संघ, 2021 एससीसी ऑनलाइन डेल 3353

[11] कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2023 लाइवलॉ एससी 4

[12] शाहीन अब्दुल्ला बनाम भारत संघ, डब्ल्यू.पी.(सी) संख्या 940/2022

[13] 2022 लाइवलॉ (एससी) 872 शाहीन अब्दुल्ला