भारत के धर्मांतरण विरोधी कानून को समझना

भारत अनेक प्रकार की धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं का देश है जिनमें हिंदू, इस्लाम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी,यहूदी आदि धर्म सम्मिलित हैं। भारत का इतिहास न केवल विविधता, बल्कि सहिष्णुता भी इसका इतिहास रहा है। लोकप्रिय रूप से यह माना जाता है कि इस सहिष्णुता के कारण ही अन्य देशों/क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले धर्म भारत में समृद्ध हुए। हालाँकि, पिछले तीन दशकों में राजनैतिक गोलबंदी के लिए धर्म के इस्तेमाल ने भारतीय समाज का ध्रुवीकरण किया, जिसका परिणाम सांप्रदायिक हिंसा के रूप में निकला। लंबे समय से जिस आख्यान का इस्तेमाल किया जाता है वह यह है कि ईसाई और मुस्लिम अल्प संख्यक समूह के सदस्य जबरदस्ती धर्मांतरण में संलग्न हैं जिसके परिणाम स्वरूप कई राज्य सरकारों ने धार्मिक स्वतंत्रता एक्ट लागू किया है, जिसे आमतौर पर धर्मांतरण विरोधी कानून कहा जाता है।

धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियमों का इतिहास 1930 के दशक से है जब ब्रिटिश शासन के दौरान कुछ "रियासतों" ने इन्हें लागू किया था।i स्वतंत्रता के बाद धर्मान्तरण को विनियमित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कई बिल पेश किए गए जो संसद में पारित न हो सके।

सबसे पहले 1954 में भारतीय धर्मान्तरण (विनियमन और पंजीकरण) विधेयक पेश किया गया था, जो "मिशनरियों के लाइसेंस देने और सरकारी अधिकारियों के पास धर्मान्तरण के पंजीकरण" को लागू करने की मांग करता था। इसके बाद 1960 में पिछड़ा समुदाय (धार्मिक संरक्षण) विधेयक लाया गया जिसका उद्देश्य हिंदुओं के "गैर-भारतीय धर्मों" में परिवर्तन की जाँच करना था, जिसे बिल में इस्लाम, ईसाई, यहूदी और पारसी धर्म के रूप में पहचाना गया। 1979 के धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक ने "अंतर-धार्मिक रुपांतरण पर आधिकारिक प्रतिबंध" की मांग की।ii

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू धर्मांतरण को नियंत्रित करने वाले राष्ट्रीय कानून के प्रबल विरोधी थे। उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया गया है:

“मुझे भय है कि यह बिल धर्मांतरण के गलत तरीकों को रोकने में बहुत मदद नहीं करेगा बल्कि एक बड़ी आबादी के उत्पीड़न का कारण बन सकता है। इसके अलावा हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि आप इन मामलों को कितनी भी सावधानी से परिभाषित करते हैं लेकिन आप उनके लिए वास्तव में उचित वाक्यांश पदावली नहीं पा सकते हैं। ज़बरदस्ती और धोखे की प्रमुख बुराइयों से सामान्य कानून के तहत निपटा जा सकता है। प्रमाण प्राप्त करना मुश्किल हो सकता है जो कि कई अन्य अपराधों के मामले में सबूत प्राप्त करना मुश्किल है लेकिन यह सुझाव देना कि विश्वास का प्रचार करने के लिए लाइसेंस प्रणाली होनी चाहिए, उचित नहीं है। यह पुलिस को हस्तक्षेप के लिए बहुत बड़ी शक्ति रखने के लिए प्रेरित करेगा।”iii

हालांकि कुछ राज्यों ने 1956 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ईसाई मिशनरी की गतिविधियों पर प्रकाशित विवादास्पद नियोगी समिति की रिपोर्ट के आधार पर आंशिक रूप से धर्मान्तरण विरोधी कानून लागू करने में सफलता प्राप्त की।

यह समिति नागपुर उच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त मुख्य न्यायाधीश एम. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में बनी थी जिसके पांच अन्य सदस्य एम.बी. पाठक, घनश्याम सिंह गुप्ता, एस.के. जॉर्ज, रतन लाल मालवीय और भानु प्रताप सिंह थे।

रिपोर्ट में धार्मिक रूपांतरणों को "कानूनी रूप से निषेध"करने की सिफारिश की गई है जो पूरी तरह से स्वैच्छिक" नहीं हैं। इसने आगे सिफारिश की कि "बल या धोखाधड़ी, अवैध साधनों का डर या वित्तीय या अन्य सहायता के अनुदान,धोखाधड़ी पूर्वक या‌‌‌‍‍‍ झूठे वादों से या नैतिक और भौतिक सहायता से या किसी व्यक्ति की अनुभवहीनता या विश्वास का लाभ उठाकर, या किसी भी व्यक्ति की आवश्यकता का शोषण करके, आध्यात्मिक (मानसिक) कमजोरी या विचारहीनता, या सामान्य तौर पर,कोई भी प्रयास या प्रयत्न (चाहे सफल हो या न हो), प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी दूसरे धर्म के व्यक्तियों (चाहे उम्र या कम उम्र) के धार्मिक विवेक में प्रवेश करने की कोशिश, दूसरे व्यक्ति के धार्मिक विवेक या विश्वास को बदलने के उद्देश्य से, ताकि अभियोजन पक्ष के विचारों या मतों से सहमत हो सकें को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।“iv

स्वतंत्र भारत का पहला धर्मांतरण विरोधी कानून- उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता कानून 1967 में लागू हुआ। एक साल बाद, 1968 में मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनयम लागू किया गया। मध्य प्रदेश के कानून की नकल अरुणाचल प्रदेश राज्य द्वारा 1978 के अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम के रूप में की गयी। हालांकि, इसके नियमों को अभी तक तय नहीं किया गया जिसके परिणामस्वरूप अधिनियम को अभी तक लागू नहीं किया जा सका है। 

वर्ष 2000 में जब छत्तीसगढ़ को एक पृथक राज्य के रूप में मध्य प्रदेश से अलग किया गया तो नव विभाजित राज्य ने “छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य अधिनयम” 1968 के रूप में धर्मांतरण विरोधी कानून को अपनाया।

वर्ष 2002 में तमिलनाडु  विधानसभा ने तमिलनाडु जबरन धर्म परिवर्तन निषेध नामक अध्यादेश पारित किया। हालाँकि 2004 में इसे वापस ले लिया गया।

अप्रैल 2006 में राजस्थान में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने इसी तरह के एक धार्मिक स्वतंत्रता बिल को पारित किया। हालाँकि राजस्थान की तत्कालीन राज्यपाल प्रतिभा पाटिल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजे जाने के बाद भारत के राष्ट्रपति की सहमति का इंतजार अब तक किया जा रहा है।

वर्ष 2006 में छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य संसोधन विधेयक को मौजूदा छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य अधिनयम को और कड़ा करने तथा अधिनियम के तहत सजा को बढ़ाने लिए लाया गया था तथा यह प्रावधान भी लाया गया की पूर्वजों के धर्म पुनः परिवर्तित होने को धर्मांतरण न माना जाए।| साथ ही साथ किसी भी धर्मांतरण समारोह के संपन्न होने से पहले संबंधित जिला मजिस्ट्रेट से अनुमति लेने की आवश्यकता होती है। हालाँकि दिसंबर 2020 तक राज्य के राज्यपाल ने इसे सहमति प्रदान नहीं किया है। 

वर्ष 2003 में गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम लाया गया। वर्ष 2006 में हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम लागू हुआ। 2017 में झारखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियमलागू किया गया। 2018 में उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम आया।

वर्ष 2019 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने 2006 के अधिनियम को निरस्त करके प्रतिस्थापित करने के लिए नया धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक लायाvi जिसमें नए प्रावधान जैसे बहका कर,अनुचित प्रभाव डालकर, विवाह आदि द्वारा धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाया गया। नए कानून के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दंड भी पिछले कानून की तुलना में अधिक कठोर थे।यह विधेयक पारित और अधिनियमित किया गया था हालांकि इसमें पूर्व अनुमति और बिना किसी नोटिस के अपने मूल धर्म को फिर से धर्मान्तरित होने के प्रावधान शामिल थे जिसे 2012 में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया।vii

मूल रूप से सभी धर्मांतरण विरोधी कानूनों के सबसे पहले कानून यानी उड़ीसा फ़्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट 1967 के सामान्य ढांचे का पालन किया गया लेकिन बाद के कानून विशेष रूप से उत्तराखंड राज्य का फ़्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट 2018 अधिक कठोर और प्रतिबंधात्मक हैं।

परिभाषाएं

“धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम” बल, धोखाधड़ी और उत्पीड़न/प्रलोभन द्वारा धर्मान्तरण को प्रतिबंधित करने का दावा करते हैं। 

उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और झारखंड में ये अधिनियम धर्मान्तरण को एक धर्म को त्याग कर दूसरे धर्म को अपनाने की तरह परिभाषित करते हैं।viii  अरुणाचल प्रदेश अधिनियम में धर्मान्तरण की परिभाषा में मामूली अंतर है। यह कहता है कि "धर्मान्तरण" का अर्थ है एक धार्मिक विश्वास का त्याग करना और दूसरा धार्मिक विश्वास को अपनाना, यह धर्मांतरण की शर्तों को उसी के अनुसार परिभाषित किया जाएगा।

इस बीच गुजरात अधिनियम "धर्मान्तरण" के बजाय "परिवर्तन" शब्द का उपयोग करता है और इसे "एक व्यक्ति द्वारा एक धर्म का त्यागने और दूसरे धर्म को अपनाने" के रूप में परिभाषित करता है। 2017 में झारखंड ने भी इसी भाषा का इस्तेमाल करते हुए"परिवर्तन" शब्द को कानून में जोड़ा।xi 

उत्तराखंड अधिनियम ने "धर्मान्तरण के लिए आश्वस्त" शब्द का उपयोग किया और इसे एक व्यक्ति द्वारा एक धर्म को त्यागने और दूसरे धर्म को अपनाने के लिए सहमत करने के रूप में परिभाषित किया।

"बल शब्द को सभी अधिनियमों में कमोबेश"दैविकअप्रसन्नता या सामाजिक बहिष्कार सहित किसी भी तरह की हिंसा के खतरे” के रूप में परिभाषित किया गया है।

सभी अधिनियम "धोखा" और "धोखाधड़ी" का उपयोग अदल बदलकर एक ही परिभाषा के साथ "गलत बयानी या किसी अन्य कपटपूर्ण युक्ति" करते हैं।

"प्रलोभन" शब्द को किसी भी प्रकार के अनुदान की पेशकश, नकद या किसी अन्य तरह के और किसी भी लाभ के अनुदान, आर्थिक रूप से या अन्यथा" के रूप में तीन राज्यों में परिभाषित कियाxv वहीँ चार राज्यों ने “प्रलोभन” शब्द को "किसी भी तरह के लालच”- (i) किसी भी प्रकार के उपहार या संतुष्टि,नकद या अन्य; (ii) किसी भी तरह के भौतिक लाभ का अनुदान, मौद्रिक या अन्यथा की तरह परिभाषित किया गया| उत्तराखंड अधिनियम ने "प्रलोभन" शब्द को विशेष रूप से परिभाषित किया-“उपहार या संतुष्टि या भौतिक लाभ के रूप में किसी भी प्रलोभन की पेशकश, या तो नकद या अन्य या रोजगार में, किसी भी धार्मिक निकाय द्वारा संचालित प्रतिष्ठित स्कूल में मुफ्त शिक्षा, आसान पैसा, बेहतर जीवन शैली, दिव्य आनंद आदि शामिल है|”

उत्तराखंड अधिनियम ने कुछ शर्तों को भी परिभाषित किया है जो अन्य सात राज्यों द्वारा पारित पिछले अधिनियमों में शामिल नहीं हैं। इसमें "अनुचित प्रभाव" शब्द शामिल है, जिसका अर्थ है "एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के ऊपर अपनी शक्ति या प्रभावकाअनुचित उपयोग करना ताकि वह व्यक्ति ऐसे प्रभाव वाले व्यक्ति की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए राज़ी हो जाये।” यह धर्म को भी आस्था, विश्वास, पूजा या जीवनशैली की किसी भी संगठित प्रणाली के रूप में परिभाषित करता है, जो भारत या उसके किसी भी हिस्से में प्रचलित है, और किसी भी कानून या प्रथा में लागू होने के समय तक परिभाषित हुआ है। इसके अलावा, यह"धार्मिक पुजारी" को किसी भी धर्म के पुजारी के रूप में परिभाषित करता है जो किसी भी धर्म के शुद्धि संस्कार या धर्मांतरण समारोह करता है और किसी भी नाम जैसे पुजारी, पंडित, मुल्ला, मौलवी, पिता आदि से जाना जाता है।

सूचना: पूर्व अनुमति और सूचना उपरांत

सभी अधिनियमों में यह उल्लेखित है कि कोई व्यक्ति धर्मपरिवर्तन  या इस समारोह की देखरेख कर रहा हो, वह विधि द्वारा निर्धारित प्रपत्र को पूरा करके जिला अधिकारियों को इसकी सूचना दे। यह सूचना धर्मान्तरण से पहले या कुछ मामलों में धर्मान्तरण के बाद दी जा सकती है। कुछ राज्यों में धर्मान्तरण समारोह आयोजित करने वाले व्यक्ति या धार्मिक पुजारी को भी इस तरह के समारोह के पहले या बाद सूचना भेजना आवश्यक है।

 

उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1967

मध्य प्रदेशधर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम, 1968

अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1978

छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1968

गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2003

हिमाचल प्रदेशधार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम,, 2006

झारखण्ड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2017

उत्तराखंड धामिक स्वतंत्रता, 2018

अभियोजन से पहले आवश्यक स्वीकृति

कानून के तहत किसी भी अपराधी के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले मजिस्ट्रेट या ऐसे किसी भी अधिकारी से जो उप विभागीय अधिकारी से नीचे का न हो की मंजूरी जरूरी है।

धर्मान्तरण की अनुमति या सूचना या घोषणा

धर्मान्तरण से पहले व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने एक घोषणा पत्र देगा। धर्मान्तरण समारोह आयोजित करने के लिए आवश्यक है कि समारोह से पंद्रह दिन पहले जिला मजिस्ट्रेट को एक सूचना दी जाए।

समारोह का संचालन करने वाले व्यक्ति द्वारा किसी भी धर्मान्तरण समारोह के सात दिन बाद जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) को सूचना देने की आवश्यकता है।

धर्मान्तरण करने वाले व्यक्ति द्वारा जिला उपायुक्त को समारोह के बाद सूचित करना होगा। हालांकि धर्मान्तरण के कितने दिनों बाद उपायुक्त को सूचित किया जाना चाहिए इसकी कोई भी समय सीमा नहीं दी गयी है।

समारोह आयोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा किसी भी धर्मान्तरण समारोह के सात दिन बाद जिला मजिस्ट्रेट को सूचना देने की आवश्यकता है।

एक व्यक्ति जिसने धर्मान्तरण समारोह के माध्यम से अपना धर्म परिवर्तित किया है उसे इस तरह के समारोह के बाद दस दिनों के भीतर डीएम को एक सूचना भेजनी होगी।

धर्मान्तरण समारोह आयोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा डीएम से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक है।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने CWP No. 438/2011 में हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2006 की धारा 4 को रद्द कर दिया था जिसमें धर्मान्तरण करने के इच्छुक किसी व्यक्ति द्वारा जिला मजिस्ट्रेट को तीस दिनों की पूर्व सूचना देने की आवश्यकता थी।

वह व्यक्ति जिसने धर्मान्तरण  समारोह के माध्यम से अपना धर्म परिवर्तित किया है, ऐसे समारोह के बाद सात दिनों के भीतर डीएम को एक सूचना भेजना आवश्यक है।

जिस व्यक्ति द्वारा धर्मान्तरण समारोह आयोजित किया जायेगा उसे डीएम से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक है।

जो व्यक्ति धर्मांतरण करने की इच्छा रखता है उसे निर्धारित प्रारूप में कम से कम एक महीने पहले उस जिला के आयुक्त को एक घोषणापत्र देना होगा जिसका वह स्थाई निवासी है।

धर्मपरिवर्तन करने वाला धार्मिक पुजारी निर्धारित प्रारूप में एक महीने की अग्रिम सूचना उस जिले के जिला मजिस्ट्रेट को देगा जहाँ समारोह आयोजित किया जाना है।

 

कानूनों के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान

 

उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1967

मध्य प्रदेशधर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम, 1968

अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 1978

छत्तीसगढ़ धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1968

गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2003

हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम,, 2006

झारखण्ड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2017

उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018

अपराध

संज्ञेय और ज़मानती है

संज्ञेय और गैर ज़मानती

कानून के उल्लंघन की स्थिति में सजा

सजा में एक साल तक का कारावास और पांच हजार रुपये तक का जुर्माना होगा।

अधिनियम के उल्लंघन पर दो साल तक का कारावास और दस हजार रुपये तक का जुर्माना शामिल होगा।

धर्मांतरण  करने वाले व्यक्ति की ओर से विफलता की स्थिति में एक वर्ष तक की सजा या एक हजार रुपये या दोनों का जुर्माना हो सकता है।

सजा में एक साल तक का कारावास और पांच हजार रुपये तक का जुर्माना होगा।

सजा में तीन साल तक का कारावास और पचास हजार रुपये तक का जुर्माना शामिल होगा|

सजा में दो साल तक की कैद और पच्चीस हजार तक का जुर्माना शामिल होगा|

सजा में तीन साल तक का कारावास और पचास हजार रुपये तक का जुर्माना शामिल होगा।

सजा में तीन महीने से एक साल तक की कैद और जुर्माना उन लोगों के लिए जो धर्मान्तरण के कम से कम एक महीने पहले की सूचना जिला मजिस्ट्रेट को देने में विफल रहते हैं।

छह महीने से लेकर दो साल तक कारावास और जुर्माना धर्मान्तरण समारोह करवाने वाले पुजारी के पर अगर वह समारोह से एक महीने की अग्रिम सूचना जिला मजिस्ट्रेट को देने में विफल होता है।

जहाँ धर्मान्तरित व्यक्ति नाबालिग/ महिला/ ../ ..जा. है

सजा में कारावास शामिल होगा जो दो साल तक का हो सकता है और या दस हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।

अनुपलब्ध

दो साल तक का कारावास या दस हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।

सज़ा में चार साल तक का कारावास हो सकता है और एक लाख रुपये तक का जुर्माने भी हो सकता है।

सजा में तीन साल तक का कारावास हो सकता है या पचास हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।

सजा में चार साल तक का कारावास हो सकता है और एक लाख रुपये तक का जुर्माना भी हो सकता है।

सजा में दो साल से कम नहीं और सात साल तक का कारावास हो सकता है और जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा|

इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाला संस्थान या संगठन

अनुपलब्ध

संगठन या संस्था के मामलों के प्रभारी व्यक्ति को तीन महीने से लेकर एक साल तक की कैद और जुर्माने की सजा होगी।

संगठन का पंजीकरण रद्द किया जा सकता है और उस व्यक्ति / संगठन को भारत या विदेश से कोई भी दान स्वीकार करने से रोक दिया जायेगा।

विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों के बीच धर्मान्तरण के एकमात्र उद्देश्य के लिए किया गया विवाह जिसके लिए व्यक्ति खुद को धर्मान्तरित करता है या शादी से पहले या बाद में महिला को धर्मान्तरित करता है।

अनुपलब्ध

अदालत द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र में पति या पत्नी द्वारा किसी दूसरे के खिलाफ दायर याचिका करने पर विवाह को अमान्य घोषित कर सकता है।

उत्तराखंड अधिनियम अन्य राज्यों से अलग है क्योंकि यह निर्धारित करता है कि यदि कोई संस्था या संगठन अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो संगठन या संस्था के मामलों के प्रभारी व्यक्ति या व्यक्ति के समूह, जैसा भी मामला हो सजा के अधीन हो सकता है और संगठन या संस्था का पंजीकरण उस समय लागू किसी भी कानून के तहत सुनवाई का उचित अवसर देने के बाद रद्द किया जा सकता है|xxi

निष्कर्ष

जबकि धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा करने का उद्देश्य रखता है और केवल उन धर्मांतरणों को रोकता है जो जबरदस्ती या धोखे से किए जाते हैं लेकिन यह हर धर्मान्तरण को संदिग्ध और एक जांच का विषय बनाता है। परिणामस्वरूप धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के बजाय इस तरह के कानून धर्म और अन्तःकरण की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए एक तंत्र के रूप में कार्य करते हैं। अधिनियमों में निहित परिभाषाएँ अस्पष्ट और मनमाने ढंग से उपयोग में लाई जाती हैं क्योंकि औसत बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए उनके अर्थ और दायरे के बारे में समझना असंभव होता है।

"बल"शब्द को "ईश्वरीय नाराज़गी के खतरे" के रूप में परिभाषित किया जाता है जो अनुचित रूप से संभावित धर्मान्तरित होने वाले लोगों और अपने धर्म का प्रचार करने की कोशिश करने वालों के बीच संभावित बातचीत पर रोक लगाता है। यह धर्म का प्रचार करने वालों को संभावित धर्मान्तरित होने वालों सेअपालन के बारे में सूचित करने से रोकता है| क्योंकि इसमें नरक या भगवान के प्रकोप की शिक्षाऐं शामिल हो सकती हैं और इस बारे में बिना सूचित हुए संभावित धर्मान्तरित होने वाले लोगों के लिए उनकी स्वतंत्रता का सार्थक रूप से उपयोग करना संभव नहीं है|

अधिनियमों में धर्मान्तरण की परिभाषा एक व्यक्ति के जीवन में पहले से मौजूद धर्म को मानती है और नास्तिक और अज्ञेयवादी को नहीं मानती है। यदि विधायिका का उद्देश्य कपटपूर्ण साधनों द्वारा धर्मांतरण पर रोक लगाना है, तो उसे नास्तिकों और अज्ञेयवादियों पर भी विचार करना चाहिए जो इस तरह के निषिद्ध साधनों के प्रति उतने ही संवेदनशील हैं जितना कि एक धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति। इसके अलावा, कब और किस समय रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू होती है और समाप्त होती है इसे सटीक रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा ये अधिनियम धर्मान्तरण की वास्तविकता को स्वीकार करने में विफल रहते हैं। ज्यादातर मामलों में धर्मान्तरण एक धार्मिक नेता द्वारा अनुष्ठान नहीं किया जाता है; यह एक व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है जो एक व्यक्ति अपने दिल से लेता है। यहां तक ​​कि पृथ्वी के सर्वशक्तिशाली राजा को इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई फैसले सुनाए की धर्मान्तरण के महज़ घोषणा मात्र को धर्मान्तरण का सबूत नहीं माना जा सकता है; “लेकिन हिंदू आस्था में परिवर्तित होने वाले एक प्रमाणिक नीयत के साथ इसे व्यक्त करने वाले स्पष्ट इरादे धर्मांतरण के लिए पर्याप्त सबूत हो सकते हैं|”धर्मान्तरण को प्रभावी करने के लिए शुद्धि या परिशुद्धि जैसे किसी औपचारिक समारोह की आवश्यक नहीं है।”

जहाँ धर्मांतरण विरोधी कानूनों की धारणा यह है कि धर्मांतरण के लिए एक बाहरी संस्था की आवश्यकता होती है और यह पसंद या व्यक्तिगत निर्णय का मामला नहीं है वहीँ उत्तराखंड का कानून एक कदम आगे बढ़ते हुए अंतर धार्मिक विवाह को भी अपने दायरे में ले आता है। कानून की धारा 6 दो अलग धर्मों के ऐसे अंतर धार्मिक विवाह पर रोक लगाता है, जो धर्मान्तरण के एकमात्र उद्देश्य से किए जाते हैं और जिसमें शादी के पहले या बाद पुरुष खुद का या महिला का धर्मान्तरण करता है। यह कानून उन लोगों पर बाधा प्रभाव डालेगा जो स्वेच्छा से किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करना चाहते हैं और इसे धर्मान्तरण से जोड़कर देखा जाने लगेगा|

उत्तराखंड का कानून अपरिवर्तित क्षेत्र में बदल गया है जो किसी के धर्मान्तरण करने के इरादे को सूचित करने की भी इजाज़त नहीं देता और उसे एक गैर ज़मानती अपराध और कारावास की सजा देता है। यह एक ऐसे व्यक्तियों का और उत्पीड़न करेगा जिसे यह कानून बल पूर्वक और कपटपूर्ण धर्मान्तरण से बचाने के लिए निर्देशित करता है।

ये अधिनियम धर्म परिवर्तन के पीछे के कारणों और उसके लिए अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में पूछताछ करने के लिए जिला अधिकारियों को व्यापक अधिकार देते हैं। यह संघ की स्वतंत्रता का अधिकार, निजता के अधिकार और अन्तःकरण की स्वतंत्रता का घोर उल्लंघन है। ये अधिनियम अधिकार के दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक जांच और संतुलन प्रदान किए बिना धर्म परिवर्तीऔर अपने धर्म का प्रचार करने के इच्छुक व्यक्तियों पर एक कष्टदायक बोझ डालते हैं। चार्जशीट दायर होने और ट्रायल शुरू होने के बाद कानूनों के तहत जरूरी मंजूरी की भी जरूरत नहीं होती है। यह निर्दोष लोगों को गलत तरीके से फंसाए जाने और अधिनियमों के तहत आरोपित होने से बचाने में विफल है।

नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय प्रण (ICCPR) भी अपने अनुच्छेद 18 में मान्यता देता है कि कुछ भी एक निश्चित विश्वास या धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं कर सकता है लेकिन धर्मान्तरण विरोधी कानून इस तरह के विकल्प को प्रतिबंधित करने के लिए ही बनाया हुआ प्रतीत होता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने टिप्पणी संख्या 22 में स्पष्ट किया कि किसी को भी उसके द्वारा धर्म को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए जिसका वह पालन करता है। कुछ राज्यों में यह आवश्यकता है कि धर्मान्तरण की योजना बनाने वाले व्यक्ति को मजिस्ट्रेट से पूर्व आज्ञा लेनी है,उसे उस अधिकारी के मर्जी के अधीन कर देता है जो प्रायः किसी धार्मिक कट्टरपंथी के दबाव में आकर एक विशेष धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन को रोके वहीँ दूसरे धर्म से उस धर्म में होनेवाले सामूहिक धर्मांतरण पर ध्यान भी ना दे।

यहां तक ​​कि केवल अधिसूचित करना, बजाय धर्मान्तरण की इजाज़त लेने के भी किसी संभावित धर्मान्तरित को रोक सकता है, खासकर अगर मजिस्ट्रेट इस धर्मान्तरण के प्रतिकूल है। मजिस्ट्रेट कट्टरपंथियों को संभावित धर्मान्तरितों के नाम दे सकते हैं, जो उन्हें डरा धमकाकर धर्मांतरण रोकने की कोशिश कर सकते हैं।xxiv वास्तव में यह प्रक्रिया दमनकारी प्रतीत होती है क्योंकि यह किसी व्यक्ति को उसका धर्म बदलने से रोक सकती है, क्योंकि इसमें परस्पर रूप से राज्य द्वारा जांच होने का अपमान भी शामिल है।

यहाँ जिन धर्मांतरण विरोधी कानूनों और संबंधित सरकारी दस्तावेज़ों की चर्चा की गई है कि वे महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों को पीड़ित के रूप में, साथ ही साथ धर्मान्तरित (विशेष रूप से समूह धर्मान्तरित) को सक्रिय धर्मान्तरण करने वालों की निष्क्रिय अवस्था के रूप में निर्मित करता है। इन अधिनियमों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा धर्मान्तरित को पीड़ित की तरह प्रस्तुत करती है –विशेषतः उन वर्गों को जो हाशिये के हैं और जिन्हें आमतौर पर भारतीय समाज के "कमजोर वर्गों" के रूप में जाना जाता है। ये कानून एक लंबे समय से चली आ रही प्रवृत्ति को दृढ़ करता जो धर्मान्तरित या संभावित धर्मान्तरित को पीड़ितों के रूप में देखते हैं।

किसी महिला, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को धर्मान्तरित करने पर कठोर दंड प्रदान करके यह अधिनियम इन समुदायों की गतिशीलता और अन्तःकरण की स्वतंत्रता को रोकता है जो हिंदू समाज की दमनकारी जाति व्यवस्था से उत्पीड़ित हैं।

इन अधिनियमों का उद्देश्य धर्मान्तरण कर रहे लोगों को सुरक्षा देने के बजाय उनके स्वतंत्र और स्वैच्छिक धर्मान्तरण रोकने जैसा प्रतीत होता है। इसलिए इन अधिनियमों को भेदभाव पूर्ण होते देखा जा सकता है जो प्रतिरोधी भेदभाव को भी बढ़ावा दे सकता है संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का सीधे तौर पर उल्लंघन भी कर सकता है। कानून यह भी सुझाव देता हुआ प्रतीत होता है कि इसमें वर्णित व्यक्तियों की श्रेणी अपने जीवन और आध्यात्मिक मामलों से संबंधित निर्णय लेने में असमर्थ है और राज्य को उनके अभिभावक के रूप में कार्य करना चाहिए।

यह एक व्यक्ति का विशेषाधिकार और स्वतंत्रता है कि वह अपने विवेक से संबंधित मामलों में स्वयं से निर्णय ले। इसलिएअधिनियमों में निर्धारित प्रक्रिया एवं व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता के अधिकार के प्रत्यक्ष लोप के रूप में देखी जा सकती है। क्योंकि इन अधिनियमों के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति का उसके या उसके विश्वास के बारे में निर्णय राज्य की स्वीकृति और संतुष्टि के अधीन है।

युलिथा हाइड और अन्य बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य मामले में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उड़ीसा अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि "यह अधिनियम अनिवार्य रूप से 'धर्म'की विषय-वस्तु से संबंधित है और इसके प्रावधान वास्तव में ‘जन व्यवस्था’ से सम्बन्धित नहीं है। अदालत ने आगे कहा की“अनुच्छेद 25 (1) धर्म के प्रचार की गारंटी देता है और धर्मांतरण ईसाई धर्म का हिस्सा है। अधिनियम में परिभाषित ‘बल’ या ‘धोखाधड़ी’ द्वारा धर्मान्तरण का निषेध उस सीमा के अधीन होगा जिसमें अनुच्छेद 25 (1) के तहत अधिकार की गारंटी है। इसमें ‘प्रलोभन’ शब्द की परिभाषा अस्पष्ट है तथा कई अभियोगात्मक गतिविधियाँ इस परिभाषा में अन्तर्निहित है और अनुच्छेद 25 (1) में मौजूद प्रतिबंध वृहद परिभाषा को कवर नहीं करता है। राज्य विधान मंडल के पास यह अधिकार नहीं है की वह ऐसा कानून लागू करे जो विवादित है और वास्तविकता में धर्म से संबंधित कानून है।”

हालाँकि 1977 में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने रेव. स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश और अन्य में ने इस निर्णय को खारिज कर दिया और इन कानूनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों राज्य कानूनों को संवैधानिक ठहराते हुए जन व्यवस्था के बारे में नियोगी की चिंता को प्रतिध्वनित किया।

"यह विवाद में नहीं है कि मध्य प्रदेश अधिनियम बल या खरीद के उपयोग से, या धोखाधड़ी और इसके अतिरिक्त आकस्मिक मामलों के माध्यम से एक धर्म से दूसरे धर्म में निषेध का प्रावधान करता है। अधिनियम द्वारा 'प्रलोभन'और 'धोखाधड़ी'के भाव परिभाषित किए गए हैं। अधिनियम की धारा 3 बल के उपयोग या प्रलोभन या धोखाधड़ी के माध्यम से धर्मान्तरण पर रोक लगाती है और धारा 4 ऐसे जबरन धर्मान्तरण को दंडित करती है। इसी प्रकार, उड़ीसा अधिनियम की धारा 3 बल के उपयोग या प्रलोभन या किसी कपटपूर्ण तरीके से जबरन धर्मांतरण पर रोक लगाती है और धारा 4 इस तरह के जबरन धर्मांतरण को दंडित करती है। इसलिए ये अधिनियम सार्वजनिक व्यवस्था का रख रखाव प्रदान करते हैं और अगर जबरन धर्मान्तरण को निषिद्ध नहीं किया जायेगा तो इससे राज्यों में सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा होगी।”

हिमाचल प्रदेश अधिनियम की धारा 4 (1), जो किसी व्यक्ति को उसके मूल धर्म में वापस लौटने पर  किसी भी नोटिस की आवश्यकता नहीं होगी इसकी पुष्टि करता है, उसे2012 में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने सेक्शन और इसी नियम 3 के साथ रद्द कर दिया। अदालत ने कहा:

“हम यह समझने में असमर्थ हैं कि किसी धर्मान्तरित द्वारा सूचना जारी कर देने से धोखाधड़ी,बल या प्रलोभन द्वारा किय जाने वाले धर्मांतरणों को रोका जा सकता है। वास्तव में, यह भानुमती के पिटारे को खोल सकता है और सूचना जारी होने के बाद यह प्रतिद्वंद्वी धार्मिक संगठनों और गुटों के बीच संघर्ष का करण बन सकता है। हिमाचल प्रदेश अधिनियम के लागू होने से पहले या लागू होने के बाद राज्य में किसी भी धर्मान्तरण की क्रिया से जन व्यवस्था पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, इसे दर्शाने के लिए राज्य द्वारा कोई अधिकृत सबूत नहीं दिए गये। वास्तव में, अब तक इस अधिनियम के तहत केवल एक ही मामला दर्ज किया गया है। ”

कोर्ट ने आगे कहा, "हम इस तर्क को समझने में विफल हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपने मूल धर्म में वापस लौटना है तो उसे किसी सूचना की आवश्यकता क्यूँ नहीं है। हमें यह बताया गया था कि चूंकि वह अपने धर्म में पैदा हुआ था और अपने धर्म को अच्छी तरह जानता है इसलिए अपने मूल धर्म में वापस लौटते समय कोई नोटिस जारी नहीं किया जाना चाहिए। यह तर्क भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के मापदंडों को पूरा नहीं करता है। मान लें कि एक व्यक्ति का जन्म धर्म A में हुआ और 20 वर्ष की आयु में वह धर्म B में परिवर्तित हो गया और 50 वर्ष की आयु में वापिस से धर्म A में परिवर्तित करना चाहता है| उसने धर्म B का अनुयायी होते हुए ज्यादा वर्ष और प्रौढ़ उम्र गुजारी है| उसे नोटिस देने की आवश्यकता क्यूँ नहीं होनी चाहिए?”

इसी प्रकार, बॉम्बे हाईकोर्ट ने डॉ. रणजीत मोहिते और अन्य बनाम में भारतीय संघ और अन्य में कहा कि कोई भी पदाधिकारी जो कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर राज्य है या इसकी कोई संस्था या संगठन अंतरात्मा की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकती है। अन्तःकरण की स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल करने वाला कोई भी व्यक्ति एक राय रखने और उसे व्यक्त करने का हक़दार है कि वह किसी भी धर्म या किसी भी धार्मिक सिद्धांत का पालन नहीं करता है ... उसे यह बताने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है कि वह किसी विशेष धर्म को मानता है।

भारत के धर्मांतरण विरोधी कानूनों का कोई आधार नहीं है। सबसे पहले इन कानूनों के अस्थिर लेकिन स्पष्ट आधार के लिए बहुत कम सबूत हैं - कि मुस्लिम और ईसाई जबरन गरीबों और वंचितों को हिंदू धर्म से दूर कर रहे हैं। कानून इस बात को मान्यता नहीं देते हैं कि धर्मान्तरित लोगों के पास उनके धर्मान्तरण का कोई आधार है; हिंदू धर्म से अलग सभी धर्मान्तरण समस्या ग्रस्त हैं और जांच के लिए खुले हैं।

इसके अलावा कानूनों में विस्तृत परिभाषाओं की कमी को देखते हुए दिया गया है, विशेष रूप से उन शर्तों में जिनके तहत धर्मान्तरण की अनुमति नहीं है- जिनमें "बल","खरीद","प्रलोभन"और "धोखाधड़ी" शामिल हैं। ICCPR अनुच्छेद 19 में व्यक्ति द्वारा उसकी मान्यताओं को व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है, और अनुच्छेद 18 में धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी के साथ, लोगों को अपनी धार्मिक मान्यताओं को साझा करने की अनुमति मिलनी चाहिए।

इसलिए ये कानून धार्मिक अल्प संख्यकों के संवैधानिक रूप से संरक्षित मौलिक अधिकारों को उन राज्यों  में सीमित करते हैं जहां ये कानून वर्तमान में लागू हैं और साथ ही सभी लोगों को अपनी पसंद से धर्म या आस्था चुनने से हतोत्साहित करते हैं।