क़ानूनी सहायता लेना: पुलिस और उसके कर्तव्य

“गिरफ़्तारी” शब्द को विधि द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, विधिक न्यायशास्त्र के अनुसार, “गिरफ़्तारी” का अर्थ है, क़ानून के सम्भावित उल्लंघन या उल्लंघन के अभियोग में किसी व्यक्ति को क़ानून से प्राप्त अधिकार का प्रयोग करते हुए रोक कर रखना या हिरासत में लेना। “गिरफ़्तारी” का तात्पर्य “न्यायालय के आदेश की मानना करते हुए, किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना या उसे किसी सम्भावित अपराध को करने से रोकना भी हो सकता है”। गिरफ़्तारी का अर्थ आपराधिक आरोप के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति पर शारीरिक नियंत्रण रखना भी है।

“गिरफ़्तारी” शब्द को विधि द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, विधिक न्यायशास्त्र के अनुसार, “गिरफ़्तारी” का अर्थ है, क़ानून के सम्भावित उल्लंघन या उल्लंघन के अभियोग में किसी व्यक्ति को क़ानून से प्राप्त अधिकार का प्रयोग करते हुए रोक कर रखना या हिरासत में लेना। “गिरफ़्तारी” का तात्पर्य “न्यायालय के आदेश की मानना करते हुए, किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना या उसे किसी सम्भावित अपराध को करने से रोकना भी हो सकता है”। गिरफ़्तारी का अर्थ आपराधिक आरोप के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति पर शारीरिक नियंत्रण रखना भी है।

साधारणतया, “गिरफ़्तारी” शब्द का मतलब किसी को पकड़ कर हिरासत में लेना या उसकी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित या समाप्त करना होता है। मूलतः, गिरफ़्तारी के लिए आवस्यक है, क़ानूनी प्राधिकार के तहत गिरफ़्तारी की धारणा, व्यक्ति को क़ानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत हिरासत में लेना, और गिरफ़्तार किए जा रहे व्यक्ति को गिरफ़्तारी के कारण से अवगत कराना।

गिरफ़्तारी के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं:

पहला, मुक़द्दमे के समय न्यायालय में अभियुक्त की मौजूदगी सुनिश्चहित करना। दूसरा, इसका उद्देश्य है ऐसे व्यक्ति को आगे विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप करने से रोकना। आरोपी की गिरफ़्तारी तहक़ीक़ात की प्रक्रिया में एक अहम भूमिका रखती है। केवल “गिरफ़्तार” शब्द कह देने से ही गिरफ़्तारी नहीं होती, बल्कि इसके लिए अभिरक्षा की प्रक्रिया के प्रति गिरफ़्तार किए जा रहे व्यक्ति एवं गिरफ़्तार करने वाले अधिकारी का समर्पण आवस्यक है।

किसी अभियुक्त की गिरफ़्तारी का अधिकार

कोई भी व्यक्ति जो किसी विधिविरुद कृत्य या संज्ञेय अपराध में लिप्त हो उसे एक पुलिस अधिकारी, ज़िलाधीश या एक सामान्य व्यक्ति गिरफ़्तार कर सकता है। पुलिस को भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, १९७३ (सीआरपीसी) की धारा ४१, ४२, १५१, और ४३२ (३) के अंतर्गत अधिकार प्राप्त है कि वो संज्ञेय अपराध के मामले में बिना वारंट भी गिरफ़्तारी कर सकती है। ज़िलाधिकारी को सीआरपीसी की धारा ४४ के अंतर्गत एक अभियुक्त की गिरफ़्तारी का अधिकार प्राप्त है। चूंकि सीआरपीसी की धारा ४१ के तहत गिरफ्तारी के अधिकार व्यापक और वृहद् है, इसलिए इसके दुरुपयोग की आशंका भी स्पष्ट है। इसीलिए, गिरफ्तारी के अधिकार का प्रयोग बड़ी सावधानी ​​के साथ-साथ पर्याप्त कारणों से किया जाना चाहिए।

पुलिस अधिकारी या गिरफ़्तारी के लिए सशक्त किसी अन्य व्यक्ति के केवल “गिरफ़्तारी” शब्द कह देने से ही गिरफ़्तारी पूर्ण नहीं होती। इसके लिए सम्बंधित व्यक्ति का खुद को गिरफ़्तार करने वाले की अभिरक्षा में समर्पित करना आवस्यक है।

गिरफ्तारी का अधिकार विवेकाधीन है। इसलिए, एक पुलिस अधिकारी हमेशा संज्ञेय अपराध में गिरफ्तारी के लिए बाध्य नहीं होता है। एक राज्य का उच्च न्यायालय भी आम तौर पर उस स्थिति में अपनी निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं करेगा जहां पुलिस अपने वैधानिक अधिकारों के प्रयोग में संज्ञेय अपराध की जांच कर रही है - जब तक कि अदालत द्वारा इस तरह के गैर-हस्तक्षेप से किसी अन्याय की स्थिति पैदा ना हो। यदि किसी व्यक्ति को किसी पुलिस स्टेशन के दायरे में प्रतिबंधित किया जाता है, तो यह निस्संदेह गिरफ्तारी होगी। इस आधार पर कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है कि कोई अराजग व्यक्ति भविष्य में संज्ञेय अपराध कर सकता है - उदाहरण के लिए, अगर कोई शराब के प्रभाव में है तो उसे केवल इस संदेह पे गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता की वो शराब के नशे में भविष्य में कोई ग़ैर-क़ानूनी काम करने वाला है। इस तरह की परिस्थिति गिरफ़्तारी का क़ानूनी आधार नहीं हो सकती जिसमें ये अनुमान लगाया गया हो के व्यक्ति अपराध की तैयारी कर रहा था। बिना वारंट के किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए पुलिस अधिकारी का संदेह मात्र ही उचित आधार नहीं हो सकता है।

यदि एक जाँच अधिकारी गिरफ्तारी की मौखिक प्रक्रिया पूर्ण करता है, लेकिन गिरफ्तारी के समय और स्थान का उल्लेख करने में विफल रहता है, तो यह गिरफ्तारी साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होता।

एक सब-इंस्पेक्टर के आदेश पर एक हेड कांस्टेबल, एक गिरफ्तारी कर सकता है, और यह कानून की दृष्टि में मान्य होगा।

एक निजी व्यक्ति तभी गिरफ्तारी कर सकता है जब कोई संज्ञेय अपराध किसी के द्वारा किया गया हो। चूंकि स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, १९८५ (एनडीपीएस एक्ट) के तहत अपराध संज्ञेय है, यहां एक निजी व्यक्ति भी सीआरपीसी की धारा ४२ के तहत एक अपराधी को गिरफ्तार कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने डी.के बसु बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल (१९९७) (१ एससीसी ४१६) में कहा कि सीआरपीसी की धारा ४१ के तहत उचित प्रक्रिया और उचित दिशानिर्देशों का पालन किए बिना हुई गिरफ्तारी को अवैध माना जाएगा और ऐसी परिस्थिति में आरोपी नुकसान की भरपाई का हकदार होगा।

गिरफ़्तारी की क्रियविधि

सीआरपीसी की धारा ४६ में गिरफ्तारी करने की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण मिलता है।  

गिरफ्तारी करने में पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो गिरफ़्तारी कर रहा है, वह गिरफ़्तार किए जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वस्तुतः छुएगा या परिरुद्ध करेगा, जब तक उस व्यक्ति ने वचन या कर्म द्वारा खुद को अभिरक्षा के प्रति समर्पित ना कर दिया हो। किसी व्यक्ति को केवल दुर्लभ मामलों में ही हथकड़ी लगाकर गिरफ्तार किया जा सकता है, जैसे कि यदि व्यक्ति भागने का प्रयास करता है या उसे भागने से रोकने के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि उसे हथकड़ी लगायी जाए। गिरफ्तारी की प्रक्रिया वचन या कर्म द्वारा अभिरक्षा की कार्यवाही के प्रति समर्पण से पूर्ण हो जाती है। गिरफ्तारी करते समय, यदि कोई व्यक्ति विरोध करता है, तो पुलिस गिरफ्तारी को प्रभाव में लाने के लिए बल या इस तरह के उचित साधनों का उपयोग कर सकती है, लेकिन इस परिस्थिति में भी हथकड़ी लगाना अनिवार्य नहीं होता।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४६ गिरफ्तारी के तीन तरीकों पर विचार प्रस्तुत करती है:

वचन या कर्म द्वारा हिरासत में लेने वाले का अभिरक्षा के प्रति समर्पण;

गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वस्तुतः छूना या परिरुद्ध करना; तथा

ऐसे व्यक्ति के शरीर को हिरासत में लेना।

गिरफ़्तारी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक प्रकार का प्रतिबंध है। जब तक सीआरपीसी की धारा ४६ के अनुरूप समर्पण ना हो, गिरफ्तारी को प्रभावित करने के लिए वास्तविक भौतिक संपर्क आवश्यक होता है। संक्षेप में, एक गिरफ्तारी एक व्यक्ति को पुलिस हिरासत में लेने का एक औपचारिक कार्य है। गिरफ़्तारी उन संज्ञेय अपराधों में अनिवार्य नहीं है जिनमे सजा की अवधि सात साल या उससे कम हो, और सीआरपीसी की धारा ४१ और ४१ ए गिरफ्तारी के लिए मनमाना अधिकारो पर नियंत्रण लगातीं है।

महिला की गिरफ़्तारी

सीआरपीसी की धारा ४६(१) के अनुसार, “…बशर्ते जहां किसी स्त्री को गिरफ़्तार किया जाना है वहां जब तक की परिस्थितियाँ विपरीत न हो, गिरफ्तारी की मौखिक इत्तिला पर अभिरक्षा में उसके समर्पण कर देने की उपधारणा की जाएगी और जब तक कि परिस्थितियों को अन्यथा आवश्यकता न हो या जब तक पुलिस अधिकारी महिला न हो, तब तक पुलिस अधिकारी महिला को गिरफ़्तार करने के लिए उसके शरीर को नहीं छुएगा।”

सीआरपीसी की धारा ४६(४) के अनुसार, “असाधारण परिस्थितियों में, सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले किसी भी महिला को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, और जहां ऐसी असाधारण परिस्थितियां मौजूद हैं, महिला पुलिस अधिकारी एक लिखित रिपोर्ट बनाकर, प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसकी स्थानीय अधिकारिकता के भीतर अपराध किया गया है या गिरफ़्तारी की जानी है, की पूर्व अनुमति प्राप्त करेगी।”

सीआरपीसी की धारा ५१ (२) के अनुसार, जब किसी महिला की तलाशी लेना आवश्यक हो, तो खोज अन्य महिला द्वारा पूर्ण शिष्टता के साथ की जाएगी। और महिलाओं के शरीर की खोज केवल महिलाओं द्वारा पूरी शिष्टता के साथ की जानी चाहिए।

'गिरफ्तारी' और 'हिरासत' के बीच अंतर

"गिरफ्तारी" और "हिरासत" शब्द समानार्थी नहीं हैं। यह सच है कि हर गिरफ्तारी में, हिरासत शामिल है, लेकिन एक अंतर है। हिरासत कुछ मामलों में गिरफ्तारी नहीं हो सकती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा २७ के अनुसार "हिरासत" शब्द का अर्थ "शारीरिक" हिरासत नहीं है। जब कोई व्यक्ति पुलिस स्टेशन में आता है, और वह वहां मौजूद पुलिस अधिकारी को बताता है कि उसने कोई अपराध किया है या कुछ ऐसा कृत्य किया है जो आपराधिक प्रवित्ति का है, तो इसे हिरासत के लिए आत्मसमर्पण माना जाता है। हिरासत का मतलब किसी व्यक्ति को जेल में डालना भी होता है।

"गिरफ्तारी" एक व्यक्ति को औपचारिक रूप से पुलिस हिरासत में लेने का एक तरीका है। सीआरपीसी की धारा ४६ में स्पष्ट शब्दों में गिरफ्तारी का विस्तृत उल्लेख मिलता है। "हिरासत" शब्द, जो साक्ष्य अधिनियम में उपयोग हुआ है, केवल संबंधित व्यक्ति की गतिविधियों पर निगरानी या प्रतिबंध को दर्शाता है, जो पूर्ण या आंशिक हो सकता है। जब एक व्यक्ति अदालत के सामने आत्मसमर्पण करता है तो उसे न्यायिक हिरासत में होना कहा जा सकता है।

"हिरासत" शब्द में वो परिस्थितियाँ भी शामिल हैं जिनमें अभियुक्त को एक पुलिस अधिकारी की गिरफ़्त में आने के लिए कहा जा सकता है या यह कहा जा सकता है कि वह किसी प्रकार की निगरानी या प्रतिबंध के अधीन है। इसलिए हिरासत में होने की अवधारणा को औपचारिक गिरफ्तारी की अवधारणा के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है, दोनों के बीच अंतर है, जैसा कि हरबंस सिंह बनाम राज्य (एआईआर १९७०) में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपना मत रखा है।

बिना वारंट के गिरफ्तारी

संविधान के अनुच्छेद २१ में ऐसे प्रावधान हैं जो किसी नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं। इसके अनुसार, "किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वत्रंता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं."

संविधान का अनुच्छेद २२ और सीआरपीसी की धारा ५० से ५७ गैरकानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ सुरक्षा उपाय प्रदान करते हैं। किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का पुलिस का अधिकार ऐसे लोगों तक सीमित है जो अभियुक्त हैं या जिनकी भूमिका किसी आपराधिक मामले में संदिग्ध है.

सीआरपीसी की धारा ४१ में निम्नलिखित परिस्थितियों को शामिल किया गया है, जिसके आधार पर कोई भी पुलिस अधिकारी बिना किसी वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है:

यदि कोई व्यक्ति किसी संज्ञेय अपराध से संबंधित या शामिल रहा हो, या जिसके खिलाफ एक वाजिब शिकायत की गई हो, या विश्वसनीय जानकारी प्राप्त की गई हो, या उस पर संदेह होने का एक उचित प्रमाण मौजूद हो; या

जो सीआरपीसी या राज्य सरकार के आदेश के तहत "घोषित अपराधी" रहा हो; या

जिसके कब्जे में कोई ऐसी चीज पाई जाती है जिसके चुराई हुई सम्पत्ति होने का उचित रूप से संदहे किया जा

सकता है और जिस पर ऐसी चीज के बारे में अपराध करने का उचित रूप से संदहे किया जा सकता है ; अथवा

जो पुलिस अधिकारी को उस समय बाधा पहुँचता है जब वह अपना कर्तव्य कर रहा है, या जो विधिपूर्ण

अभिरक्षा से निकल भागा है या निकल भागने का प्रयत्न करता है; या

जिस पर संघ के सशत्र बलों में से किसी से अभित्याजक होने का उचित संदहे है; अथवा

जिनके खिलाफ एक वाजिब शिकायत की गई है, या अपराध करने के संदिग्ध होने की विश्वसनीय जानकारी है;

सीआरपीसी की धारा ४१ के अलावा, विभिन्न विशेष और स्थानीय अधिनियम भी बिना वॉरंट के गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधानों की परिकल्पना करते हैं।

एक गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार

गिरफ्तारी की स्थिति में, व्यक्ति की स्वतंत्रता निस्संदेह प्रभावित होती है। 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का अधिकार बहुत ही अहम है, जिसको शासन और उसके अधिकारियों द्वारा किसी हालत में नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। व्यक्ति की स्वतंत्रता से ज्यादा कीमती और पवित्र एक लोकतंत्र में कुछ भी नहीं हो सकता। इसीलिए, किसी व्यक्ति विशेष की स्वतंत्रता, हमारी शासन प्रणाली में एक बड़ा संवैधानिक महत्व रखती है।

जीवन के अधिकार में मानव को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, जिसमें स्वतंत्रतापूर्वक साथी मनुष्यों के साथ घुलने-मिलने के अधिकार भी शामिल हैं.

राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट में पृष्ठ संख्या 32 पर सुझाव दिया गया है कि गिरफ्तारी केवल निम्नलिखित परिस्थितियों में की जा सकती है:

जब मामले में हत्या, डकैती, लूट, बलात्कार आदि जैसे गंभीर अपराध शामिल हों, और आरोपी को गिरफ्तार करना और उसकी गतिविधियों को नियंत्रित करना आतंक-ग्रसित पीड़ित में विश्वास जगाने के लिए आवश्यक हो;

जब अभियुक्त की कानून की प्रक्रिया से बचने की कोशिश या फरार होने की सम्भावना हो;

अगर आरोपी हिंसक व्यवहार दिखा रहा है और जब तक उसकी गतिविधियों को नियंत्रित ना किया जाए, तब तक वह और भी अपराध कर सकता है; तथा

आरोपी एक आदतन अपराधी हो और जब तक उसे हिरासत में नहीं रखा जाता, तब तक उसके फिर से ऐसे ही अपराध करने की संभावना हो।