नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 का विश्लेषण

परिचय

2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को 10 और 11 दिसंबर, 2019 को संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया था, और यह 10 जनवरी, 2020 के दिन इसकी औपचारिक अधिसूचना के बाद लागू हो गया।[i] नागरिकता संशोधन अधिनियम अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले ऐसे किसी भी व्यक्ति की नागरिकता प्राप्त करने की प्रक्रिया की गति को बढ़ा देता है, जिसने 31 दिसंबर, 2014 के दिन या उससे पहले भारत में प्रवेश किया था।”[ii]

इस अधिनियम में स्पष्ट रूप से मुसलमानों को इस लाभ के दायरे से रखा गया था और इस तरह इस अधिनियम की संवैधानिकता को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। इस बात ने असंख्य प्रश्नों को जन्म दिया, जो इस प्रकार हैं:

क्या यह कानून भारतीय संविधान के भाग-III का उल्लंघन है, जो सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का आश्वासन देता है और अन्य बातों के साथ-साथ, धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकता है? क्या यह कानून अफगानिस्तान के हज़ारा और पाकिस्तान के अहमदिया जैसे कुछ मुस्लिम संप्रदायों के साथ भेदभाव करता है, जिन्हें उन देशों में सताया जाता है? क्या इस कानून को बनाने में विधानमण्डल की मंशा सद्भावनापूर्ण है या उसकी मंशा जनता के बीच ध्रुवीकरण को बढ़ाना है? इस अधिनियम में अन्य पड़ोसी देशों में सताए गए धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों, हिंदू-बहुल नेपाल के ईसाइयों, और बौद्ध-बहुल भूटान और श्रीलंका के तमिल हिंदूओं को बाहर क्यों रखा गया है?[iii] क्या यह अधिनियम संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठापित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करके संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है?[iv] संशोधन अधिनियम को राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के साथ लागू करने के क्या परिणाम हैं? क्या यह संशोधन अधिनियम अन्य अंतर्राष्ट्रीय संधियों और अनुबंधों के अलावा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूडीएचआर) और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (आईसीसीपीआर) के प्रति राज्य-पक्ष के रूप में भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों के अनुरूप है?

भारत में नागरिकता

भारतीय संविधान का भाग II नागरिकता के विषय पर बात करता है। नागरिकता अधिनियम 1955 नागरिकता को जन्म[v], वंश[vi], पंजीकरण[vii] और नागरिकीकरण[viii] के आधार पर मान्यता देता है। नागरिकता अधिनियम में छह बार, अर्थात, 1986, 1992, 2003, 2005, 2016, और 2019[ix] में संशोधन  किया गया है।

नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत, 26 जनवरी 1950 या उसके बाद भारत में जन्में किसी भी व्यक्ति को भारतीय नागरिक माना जाएगा। हालाँकि, 1986 में इस अधिनियम में पहली बार संशोधन किया गया, और इसमें भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की एक अतिरिक्त आवश्यकता जोड़ दी गई, अर्थात, जन्म के समय, माता-पिता में से दोनों या एक को भारतीय नागरिक होना चाहिए।

एक व्यक्ति जिसका जन्म भारत के बाहर हुआ है लेकिन यदि उसका पिता भारत का नागरिक हो तो वह वंश के आधार पर भारतीय नागरिक होगा। नागरिकता अधिनियम में 1992 के संशोधन द्वारा शब्द “पिता” को “उसके माता-पिता में से कोई एक” में बदल दिया गया। इसलिए, 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद और 10 दिसंबर 1992 से पहले भारत के बाहर जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति यदि उस पुरुष या महिला के जन्म के समय उसके पिता भारत के नागरिक हों तो वह वंश के आधार पर भारतीय नागरिक होगा। यदि व्यक्ति का जन्म 10 दिसंबर 1992 के बाद भारत से बाहर हुआ है, तब यदि उस पुरुष या महिला के  माता-पिता में से कोई एक उसके जन्म के समय भारत का नागरिक हो, तो वह वंश के आधार पर भारतीय नागरिक होगा।

1995 अधिनियम को 2003 में तीसरी बार संशोधित किया गया था। 2003 नागरिकता संशोधन अधिनियम में शब्द “अवैध प्रवासी” जोड़ दिया गया, जिसका अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जिसे कैद या निर्वासित किया जा सकता है। इसके अलावा, इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत में जन्म लेने वाले व्यक्ति को केवल तब भारतीय नागरिक माना जाएगा जब उसके माता-पिता अवैध प्रवासी न हों।

एक अवैध प्रवासी[x] का मतलब है एक विदेशी जिसने वैध पासपोर्ट या वैध वीजा के बिना भारत में प्रवेश किया है, या इस तरह के वैध दस्तावेजों के साथ प्रवेश तो किया है, लेकिन समय की अनुमत अवधि से परे भारत में रहा है।

एक ऐसा व्यक्ति जो भारतीय नागरिक बनना चाहता है, लेकिन वह न तो भारत में जन्मा है और न ही भारतीय नागरिकों से जन्मा है, यदि वह पुरुष/महिला निम्नलिखित में से किसी भी श्रेणी के अंतर्गत आता है तो वह पंजीकरण द्वारा भारतीय नागरिक बनने के लिए आवेदन कर सकता है, बशर्ते कि ऐसा व्यक्ति अवैध प्रवासी न हो:

  • भारतीय मूल[xi] का एक व्यक्ति जो पंजीकरण के लिए आवेदन करने के सात वर्ष पहले से भारत में सामान्य रूप से रह रहा है;
  • भारतीय मूल का कोई व्यक्ति;
  • एक व्यक्ति जो किसी भारतीय नागरिक से विवाहित है और वह पुरुष/महिला ऐसा आवेदन करने के सात वर्ष पहले से भारत में सामान्य रूप से रह रहा है;
  • भारतीय नागरिकों के नाबालिग बच्चे;
  • वयस्क आयु और पूर्ण क्षमता वाला एक व्यक्ति जिसके माता-पिता भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत हैं;
  • एक व्यक्ति जो भारत के विदेशी नागरिक के रूप में पंजीकृत है और आवेदन करने के एक वर्ष पहले से भारत में सामान्य रूप से रहा है।

एक ऐसा व्यक्ति जो न तो भारत में जन्मा है, और न ही उसके माता-पिता जो भारतीय नागरिक हैं परंतु  भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत नहीं हैं, वह नागरिकीकरण द्वारा भारत का नागरिक बन सकता है, यदि:

  • केंद्र सरकार की राय में, आवेदक ने आम तौर पर विज्ञान, दर्शनशास्त्र, कला, साहित्य, विश्व शांति या मानव प्रगति के लिए विशिष्ट सेवा प्रदान की है; या
  • जैसा कि अधिनियम की तीसरी अनुसूची में प्रावधान किया गया है, यदि ऐसा आवेदक:
  1. किसी ऐसे अन्य देश का व्यक्ति या नागरिक न हो, जहाँ भारतीय नागरिकों को कानून या कार्यप्रणाली के द्वारा नागरिकीकरण के माध्यम से नागरिक बनने से रोका जाता है;
  2. यदि वह दूसरे देश का नागरिक हो:
  3. वह पुरुष/महिला या आवेदन के ठीक पहले 12 महीने या उससे कम[xii] अवधि तक भारत में रहा है या भारत सरकार की सेवा की है;
  4. यदि वह पुरुष/महिला अच्छे चरित्र का हो;
  5. ऊपर बताए गए 12 महीनों से ठीक पहले के 14 वर्षों में, वह भारत का निवासी रहा हो या भारत में सरकार की सेवा में कुल 11 वर्षों से कम न रहा हो;
  6. उस पुरुष/महिला को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो; और
  7. यदि नागरिकीकरण का प्रमाण पत्र दिए जाने पर, उस पुरुष/महिला की मंशा भारत में निवास करने की हो।

नागरिकता अधिनियम में 2016 में फिर से संशोधन किया गया था। केंद्र सरकार ने 2015 और 2016 में दो अधिसूचनाएं जारी कीं, जिसमें अवैध प्रवासियों के कुछ समूहों को 1946 के विदेशी अधिनियम और 1920 के पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम के प्रावधानों से छूट दी गई थी। ये समूह हैं  अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई, जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आए थे। इस अधिनियम का तात्पर्य यह है कि भारत में वैध निवास के दस्तावेजों की कमी के कारण उन्हें कैद या निर्वासित नहीं किया जाएगा।

इन संशोधनों में सबसे विवादास्पद संशोधन है नवीनतम संशोधन। सीएए, 2019 अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की प्रक्रिया को गति को बढ़ा देता है, यदि वे दिसंबर 2014 के 31वें दिन से पहले भारत पहुंचे थे और पाँच वर्ष से देश में रह रहे हैं।[xiii]

भारतीय संविधान का ढाँचा जस सोली (जन्म से नागरिकता) सिद्धांत को  भारतीय नागरिकता का प्रमुख आधार बनाने की मंशा से तैयार किया गया था। समय के साथ, वंश द्वारा नागरिकता दिए जाने पर ध्यान केंद्रित हो गया। सीएए-एनपीआर का इस्तेमाल भारत में पहली बार धर्म को नागरिकता प्राप्त करने का लिटमस टेस्ट बना देगा।[xiv]

सीएए, 2019 की संवैधानिकता

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 की धारा 2 (1) (b) की शर्तें इस प्रकार हैं:

“यदि अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय से संबंधित कोई भी व्यक्ति जिसने 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया हो और जिसे केंद्र सरकार द्वारा या पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 (1920 का 34) की धारा 3 की उप-धारा (2) के उपनियम (c) के तहत या विदेशी अधिनियम, 1946 (1946 का 31) के प्रावधानों के अनुप्रयोग से या इसके तहत बनाए गए किसी भी नियम या आदेश से छूट दी गई हो, उसे इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा।”

यह उचित है कि इस संशोधन के दो महत्वपूर्ण विवरणों पर ध्यान दिया जाए, जो इस प्रकार हैं:

  • इसमें मुसलमानों, बहाईयों, यहूदियों और नास्तिकों सहित कुछ धार्मिक समुदायों को स्पष्ट रूप से बाहर रखा गया है, हालाँकि यह आमतौर पर ज्ञात है कि विशेष रूप से पाकिस्तान में शिया मुसलमान और अहमदिया मुसलमान संवेदनशील वर्ग हैं।
  • ऐसा करने का कोई कारण बताए बिना इसमें केवल तीन पड़ोसी देश, अर्थात् अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान को शामिल किया गया है, जबकि यह सर्वत्र ज्ञात है कि कई अन्य पड़ोसी देशों में भी धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न एक बड़ी चुनौती है, जिसमें म्यांमार के रोहिंग्या मुस्लिम, नेपाल और भूटान के ईसाई, श्रीलंका के तमिल हिंदू और इंडोनेशिया के नास्तिक भी शामिल हैं।[xv]
  • यानी इस संशोधन के बाद के भाग को 2015 और 2016 में केंद्र सरकार द्वारा इस आशय की पारित अधिसूचना में संशोधन करके प्रभावी बनाया गया है।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के प्रकाश में, निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए हैं:

 

  • क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है?[xvi]

भारत के संविधान[xvii] का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का आश्वासन देता है न कि केवल नागरिकों को। जिस आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, वे इस प्रकार हैं:

  1. 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम के दायरे से मुसलमानों, यहूदियों, बहाईयों और नास्तिकों को बाहर करके, संसद ने इन धार्मिक समुदायों के साथ सीधे तौर पर भेदभाव किया है और उन्हें पड़ोसी देशों के अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की तुलना में असमान स्तर पर रखा है।
  2. कानून के समक्ष समानता के अधिकार का आश्वासन सभी व्यक्तियों को दिया गया है, न कि केवल भारतीय नागरिकों को और इसलिए, यह उन शरणार्थियों पर भी लागू होता है जो दूसरे देशों में हो रहे धार्मिक उत्पीड़न से भागते हैं और भारत में आकर शरण लेते हैं।

बंसारी कामदार ने द डिप्लोमैट[xviii] में प्रकाशित अपने लेख में चर्चा की है कि कैसे “भारत को एक शरणार्थी कानून की आवश्यकता है, लेकिन इसे बहिष्करणवादी नहीं होना चाहिए।” भारत दुनिया के कुछ ऐसे उदार लोकतंत्रों में से एक है जो न तो 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौते और इसके 1967 के मसौदे का एक पक्ष है और न ही उसका अपना राष्ट्रीय शरणार्थी कानून है। इसलिए, सरकार सभी शरणार्थियों को “अवैध अप्रवासी” के रूप में संदर्भित करती है और “राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, औपचारिक कानूनी ढांचे की कमी ने उसे शरणार्थियों के संबंध में एक अनौपचारिक नीति का पालन करने की अनुमति प्रदान की है।”

उदाहरण के लिए, तिब्बती शरणार्थियों को भारत में निर्वासन के तहत सरकार बनाने की अनुमति दी गई थी, जबकि श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान भारत में प्रवास करने वाले तमिलों को कड़ी और अत्यधिक निगरानी वाले शिविरों में रखा गया था। वर्तमान में उन रोहिंग्या मुसलमानों के साथ और भी अधिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाता है, जिन्हें वापस म्यांमार भेजा जा रहा है।[xix]

मेनका गांधी बनाम भारत संघ[xx]  मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की सात-न्यायाधीशों की पीठ ने “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” की व्याख्या करते हुए कहा कि इसका अभिप्राय कानून की उचित प्रक्रिया से है, अर्थात, वह प्रक्रिया जो किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करती है, उसे उचित, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए।

जस्टिस पी.एन. भगवती, एन.एल. उनतवालिया और एस. मुर्तजा फजल अली के शब्दों में:

“अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के बीच का अंतर-संबंध क्या है? क्या अनुच्छेद 21 में केवल यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने से पहले कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया की कुछ झलक होनी चाहिए, चाहे वह कितनी भी पक्षपातपूर्ण या काल्पनिक क्यों न हो, या यह कि उस  प्रक्रिया को इस अभिप्राय में कुछ आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए यानी उस प्रक्रिया को उचित और तर्कसंगत होना चाहिए?

“... अनुच्छेद 14 राज्य की कार्रवाई में निरंकुशता पर प्रहार करता है और व्यवहार की निष्पक्षता और समानता सुनिश्चित करता है। तर्कसंगतता का सिद्धांत, जो कानूनी रूप से और साथ ही दार्शनिक रूप से, समानता या गैर-निरंकुशता का एक अनिवार्य तत्व है, व्यापक सर्वव्यापीता की तरह अनुच्छेद 14 में व्याप्त है और इसलिए अनुच्छेद 21 द्वारा परिकल्पित प्रक्रिया को अनुच्छेद 14 के अनुरूप होने के लिए तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। यह ‘उचित और न्यायपूर्ण और निष्पक्ष’ होना चाहिए और मनमाना, काल्पनिक या दमनकारी नहीं होना चाहिए; अन्यथा, यह कोई प्रक्रिया ही नहीं होगी और इससे अनुच्छेद 21 की आवश्यकता पूरी नहीं होगी।”

चूंकि नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 न्यायसंगतता, निष्पक्षता और औचित्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, इसलिए इस कानून का परिणाम ऐसी प्रक्रिया होगा जो अनुच्छेद 14 की आवश्यकताओं का उल्लंघन करती है और फलस्वरूप अनुच्छेद 21 के तहत निर्धारित कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया होने के योग्य नहीं है।

 

  • क्या सीएए, 2019 भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य और अन्य[xxi]  मामले में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, ए. एन. अहमदी सी.जे. ने यह कहा:

“हमारा देश कानून के शासन से संचालित है। राज्य हर इंसान के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए बाध्य है, चाहे वह भारत का नागरिक हो या नहीं।”

यह जनहित याचिका राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा चकमा/हाजोंग (“चकमा”) आदिवासियों के पक्ष में लाई गई थी, जिन्हें ऑल-अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (एएपीएसयू) द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा था और अरुणाचल प्रदेश से जबरन बाहर निकालने की धमकी दी जा रही थी।

1964 में कप्टई जल विद्युत परियोजना के कारण चकमाओं को बड़ी संख्या में विस्थापित किया गया था और इसलिए, वे बांग्लादेश से आकर अरुणाचल प्रदेश में बस गए थे। इन अप्रवासियों की कई पीढ़ियां अब मुख्य रूप से अरुणाचल प्रदेश में रह रही थीं और कुछ असम के हिस्सों में चले गए थे।

उपरोक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 में कही गई बातों को दृढ़ करते हुए चकमाओं के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की जिसमें कहा गया है:

“कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।”

कतैर अब्बास हबीब अल कुतैफी बनाम भारत संघ (1998)[xxii] में गुजरात उच्च न्यायालय और डोंग लियान खाम बनाम भारत संघ (2015)[xxiii] में दिल्ली उच्च न्यायालय ने गैर-वापसी(नॉन-रीफाउलमेंट)[xxiv] के सिद्धांत को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में मान्यता दी।

गुजरात उच्च न्यायालय ने कतैर अब्बास मामले (1998) में यह टिप्पणी की:

“शरणार्थी समस्या एक वैश्विक समस्या है। मानवीय संकटों की एक क्रमिक धारा ने पीड़ितों की दुर्दशा के महत्व को कम कर दिया है, साथ ही उन खतरों को भी बढ़ा दिया है जो बड़े स्तर के जनसंख्या आंदोलन क्षेत्रीय सुरक्षा, स्थिरता और समृद्धि के लिए उत्पन्न करते हैं। मेजबान देश शरणार्थियों के लिए दरवाजे खुले रखने से कतरा रहे हैं। 1947 के बाद से, लगभग 3.5- 4 करोड़ लोगों ने भारतीय उप-महाद्वीप की सीमा पार की है। भारत ने तिब्बतियों, श्रीलंकाई चकमाओं, अफगानों और अन्य लोगों के लिए सीमा खोली दी। भारत सरकार शरणार्थियों की समस्या को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से देखती है, जो उसकी अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत से उत्पन्न हुई है।”

निर्णय के अनुच्छेद 19 में, न्यायमूर्ति एन. माथुर ने यह टिप्पणी की:

“उपरोक्त बातों की रूपरेखा के अनुसार, मानवतावादी कानून के अमल के मामले में निम्नलिखित सिद्धांत उभर कर आते हैं:-

  • अंतर्राष्ट्रीय समझौते और संधियाँ सरकार द्वारा लागू करने योग्य नहीं हैं, न ही वे किसी भी पक्ष को कार्रवाई करने का कारण देते हैं, लेकिन उनका सम्मान करना सरकार का दायित्व है।
  • किसी विदेशी को निष्कासित करने की सरकार की शक्ति असीमित है।
  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 एक गैर-नागरिक को भी भारतीय भूमि पर जीवन के अधिकार का आश्वासन प्रदान करता है, लेकिन भारत में रहने और बसने के अधिकार का नहीं।
  • ऐसे अंतरराष्ट्रीय अनुबंध और संधियाँ जो हमारे संविधान में प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों को कार्यान्वित करती हैं, उन पर न्यायालयों द्वारा उन मौलिक अधिकारों के पहलुओं के रूप में भरोसा किया जा सकता है और उन्हें उसी प्रकार लागू किया जा सकता है।
  • यूएनएचसीआर मानवतावादी होने के नाते, शरणार्थी के प्रमाणीकरण पर, भारत सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि शरणार्थियों को उनकी समस्या का समाधान होने तक अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा प्राप्त होती रहे।
  • ‘गैर-वापसी’ का सिद्धांत भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल है और यह उपाय तब तक उपलब्ध है, जब तक कि शरणार्थी की उपस्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए प्रतिकूल न हो।
  • अनुच्छेद 51 (सी) और अनुच्छेद 253 के तहत निर्देशों के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों का सम्मान किया जाना चाहिए। न्यायालय उन सिद्धांतों को राष्ट्रीय कानून में लागू कर सकते हैं, बशर्ते ऐसे सिद्धांत राष्ट्रीय कानून से असंगत न हों।
  • जहाँ राष्ट्रीय कानून का निर्माण संभव न हो, वहाँ न्यायालय सामंजस्यपूर्ण ढांचे द्वारा अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संधियों को प्रभावी बना सकते है।”

उपरोक्त आधार पर, तत्काल मामले में याचिकाकर्ताओं (इराकी शरणार्थियों) को हिरासत से रिहा कर दिया गया और उन्हें कुछ समय के लिए भारत में शरण दी गई।

डोंग लियान खाम मामला (2015) में दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल पीठ की टिप्पणी इस प्रकार है:

“गैर-वापसी” का सिद्धांत, जो एक ऐसे शरणार्थी के जबरन निष्कासन को प्रतिबंधित करता है, जिसे अपनी जाति, धर्म और राजनीतिक राय के कारण अपने मूल देश में खतरे की आशंका है, उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए आश्वासन के भाग के रूप में देश में शरण दी जानी आवश्यक है,  क्योंकि “गैर-वापसी” का सिद्धांत किसी व्यक्ति की राष्ट्रीयता के बावजूद, उसके जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करता है/उसकी रक्षा करता है। यह सुरक्षा एक शरणार्थी के लिए उपलब्ध है लेकिन यह राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर नहीं होनी चाहिए।”

इस कारण न्यायालय ने म्यांमार के ईसाई शरणार्थियों को राहत दी और प्रतिवादियों, अर्थात् भारत संघ और विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी को निर्देश दिया कि वे याचिकाकर्ताओं को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर प्रदान करें और शरणार्थियों के सर्वोत्तम हित में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) के परामर्श से उनके किसी तीसरे देश में  निर्वासन के विकल्प पर विचार करें और निर्देश दिया कि शरणार्थी भारत में तब तक रहें जब तक कि न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देश 31 मार्च 2016 तक लागू नहीं हो जाते।

 

  • क्या 2019 का नागरिकता संशोधन अधिनियम भारत के संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करने के आधार पर भारतीय अदालतों द्वारा रद्द किए जाने का हकदार है?

भारत के संविधान का अनुच्छेद 13 राज्य विधानसभाओं या संसद को भारत के संविधान के भाग III के तहत प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई भी कानून बनाने से रोकता है। अनुच्छेद 13 की रूपरेखा इस प्रकार है:

मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अपमान करने वाले कानून –

  • इस संविधान के लागू होने से ठीक पहले भारत के राज्य-क्षेत्र में लागू सभी कानून, वे जिस सीमा तक इस भाग के प्रावधानों से असंगत हैं, उन्हें उस असंगति की सीमा तक अमान्य माना जाएगा।
  • राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता है या उन्हें कम करता है और इस उपनियम का उल्लंघन करके बनाया गया कोई भी कानून उल्लंघन की सीमा तक अमान्य होगा।
  • इस अनुच्छेद में, जब तक कि संदर्भ की अन्यथा जरूरत न हो, -
    1. इस “कानून” में भारत के क्षेत्र में कानूनी रूप से लागू होने वाला कोई भी अध्यादेश, आदेश, उप-नियम, नियम, विनियम, अधिसूचना, रीति या उपयोग शामिल हैं।
    2. “लागू कानून” में इस संविधान के प्रारंभ से पहले भारत के क्षेत्र में विधानमंडल या किसी अन्य सक्षम प्राधिकरण द्वारा पारित या बनाए गए और ऐसे कानून शामिल हैं जिन्हें पहले निरस्त नहीं किया गया है, भले ही ऐसा कोई भी कानून या उसका कोई भाग तब भी पूरी तरह से या विशेष क्षेत्रों में संचालन में न रहा हो।
  • इस अनुच्छेद की कोई भी बात इस संविधान के अनुच्छेद 368[xxv] के तहत बनाए गए किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी।

हालाँकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की 13-न्यायाधीशों की पीठ ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य,[xxvi] नामक अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि “संविधान की मूल संरचना को संवैधानिक संशोधन द्वारा भी निरस्त नहीं किया जा सकता।”

मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सीकरी की टिप्पणी इस प्रकार है:

“विद्वान महा-न्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) ने कहा कि संविधान का प्रत्येक प्रावधान आवश्यक है; अन्यथा उसे संविधान में रखा ही नहीं गया होता। यह सच है। लेकिन इससे संविधान के हर प्रावधान की स्थिति एक सी नहीं हो जाती। सही स्थिति यह है कि संविधान के प्रत्येक प्रावधान में संशोधन किया जा सकता है बशर्ते उसके परिणाम से संविधान की मूल नींव और संरचना पर कोई फर्क न पड़े। मूल संरचना को निम्नलिखित विशेषताओं से निर्मित कहा जा सकता है:

  • संविधान की सर्वोच्चता;
  • सरकार का गणतंत्रवादी और प्रजातंत्रवादी रूप;
  • संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र;
  • विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन;
  • संविधान का संघीय चरित्र।”

न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी के शब्दों में:

“इस विचार में, मेरा निष्कर्ष यह है कि अनुच्छेद 13 (2) केवल सामान्य विधि-निर्माण संस्था द्वारा बनाए गए कानून को रोकता है, न कि अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधन को; अर्थात संसद अनुच्छेद 368 के तहत अनुच्छेद 13 और मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है, और यद्यपि अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन की शक्ति व्यापक है, यह इतनी व्यापक नहीं है कि उन्हें पूरी तरह से निरस्त कर सके या उनका निराकरण या उन्हें असमर्थ करने या नष्ट करने परिणाम  संविधान के मूल ढांचे के किसी भी मौलिक अधिकार या अन्य आवश्यक तत्वों को निरस्त करने और उसकी पहचान को नष्ट करने के बराबर हो।”

इसलिए, सीएए, 2019 भाग- III का उल्लंघन करता है और फलस्वरूप भारत के संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है, इसलिए यह रद्द किए जाने और अमान्य घोषित किए जाने का हकदार है।

क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन करता है?

भारत शरणार्थियों की स्थिति 1951[xxvii] और इसके 1967 के मसौदे से संबंधित समझौते का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। गैर-वापसी का सिद्धांत, हालाँकि औपचारिक रूप से 1951 के शरणार्थी समझौते में निर्धारित किया गया है, और अब एक विधिवत अंतरराष्ट्रीय कानून बन गया है और सभी राज्यों द्वारा इसका पालन किया जाना आवश्यक है, भले ही उन्होंने इस तरह के किसी भी समझौते या संधि[xxviii] पर हस्ताक्षर किए हों या इसे स्वीकार किया हो अथवा नहीं।

इसके अलावा, भारत कई अन्य संयुक्त राष्ट्र संधियों और समझौतों का भी हस्ताक्षरकर्ता है, जिसमें मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूडीएचआर) और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (आईसीसीपीआर) शामिल हैं। यूडीएचआर के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि “सभी को जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार है;” अनुच्छेद 5 में कहा गया है कि “किसी को यातना नहीं दी जाएगी या उससे क्रूर या अपमानजनक व्यवहार नहीं किया जाएगा;” अनुच्छेद 6 कहता है कि “सभी के पास कानून की दृष्टि में एक इंसान के रूप में व्यवहार किए जाने का अधिकार है;” अनुच्छेद 9 में कहा गया है कि “किसी भी व्यक्ति की मनमाने ढंग से गिरफ्तारी नहीं की जाएगी, हिरासत में नहीं लिया जाएगा या उसे निर्वासित नहीं किया जाएगा।” और अनुच्छेद 14 में घोषणा की गई है कि “सभी को उत्पीड़न के कारण दूसरे देशों में शरण लेने और सुख से रहने का अधिकार है।”

आईसीसीपीआर के अनुच्छेद 7 में यातना या अन्य क्रूर, अमानवीय, या अन्य अपमानजनक व्यवहार या दंड से मुक्त होने के अधिकार का प्रावधान है। इस प्रावधान की व्याख्या मानवाधिकार समिति ने अपनी सामान्य टिप्पणी संख्या 20 में की है, जिसमें देश-वापसी के विरुद्ध सुरक्षा शामिल है।[xxix]

भारत अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौते (यूएनसीएटी) का भी एक हस्ताक्षरकर्ता है, जिसका अनुच्छेद 3 स्पष्ट रूप से एक व्यक्ति की किसी ऐसे “दूसरे राज्य में जहाँ यह विश्वास करने के पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि उसे यातना के दिए जाने का खतरा होगा” वापसी या प्रत्यर्पण के विरुद्ध है।[xxx]

यह भारत के संविधान का आदेश है कि राज्य अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के लिए सम्मान को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा। संविधान का अनुच्छेद 51, जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में से एक है, में स्पष्ट रूप से परिकल्पना की गई है कि राज्य (क ) अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने; (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानजनक संबंध बनाए रखने; (ग) एक दूसरे के साथ संगठित लोगों के व्यवहार में अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने; और (घ) मध्यस्थता द्वारा अंतरराष्ट्रीय विवादों के निपटारे को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा।

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) क्या है

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान और भारत में स्वतंत्रता के बाद विभाजन के कारण असम में बांग्लादेशियों के प्रवास में वृद्धि के होने के बाद, 1951 में पहली बार नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया गया ताकि उन बसने वाले लोगों  का दस्तावेज़ीकरण किया जा सके।[xxxi]

असम आंदोलन या असम गतिरोध (1979-1985) देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में, विशेष रूप से बांग्लादेश से असम में आए अवैध प्रवासियों और/या विद्रोही समूहों की व्यापक घुसपैठ के विरुद्ध राज्य के छात्र संघों की प्रतिक्रिया थी।[xxxii]

2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर-पूर्व भारत की कुल जनसंख्या 4.6 करोड़ थी। जिनमें से 3.1 करोड़ असम में रह रहे थे, जो असम राज्य की केंद्रित आबादी का 68 प्रतिशत है। उन 3.1 करोड़ में से, केवल 50 प्रतिशत ही असमिया भाषा बोलने वाले लोग थे।[xxxiii]

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) के नेतृत्व में किया गया असम आंदोलन या असम गतिरोध, बांग्लादेश से आए अवैध अप्रवासियों को बाहर निकालने का एक लोकप्रिय विद्रोह था। यह आंदोलन एएएसयू – एएजीएसपी के नेताओं और भारत सरकार के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के अधीनता में असम समझौते पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ। इस ऐतिहासिक आंदोलन के छह लंबे वर्षों की इस अवधि के दौरान, कथित तौर पर, 855 लोगों (बाद में एएएसयू की रिपोर्ट के अनुसार 860) ने 1979-1985 के असम आंदोलन में “घुसपैठ मुक्त असम” की उम्मीद में अपनी जान गंवा दी थी।[xxxiv]

असम समझौता (1985) 15 अगस्त, 1985 को नई दिल्ली में भारत सरकार के प्रतिनिधियों और असम आंदोलन के नेताओं के बीच हुआ हस्ताक्षरित समझौते का ज्ञापन (एमओएस) था। असम समझौते का मूल पहलू था: 25 मार्च 1971 को या उसके बाद असम में आए विदेशियों का पता लगाया जाना जारी रहेगा; ऐसे विदेशियों को निष्कासित करने और हटाए जाने के लिए व्यावहारिक कदम उठाए जाएंगे।[xxxv]

1985 के बाद, असम ने - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से लेकर असम गण परिषद तक सरकारों में कई बदलाव देखे, और अंत में 2016 में भारतीय जनता पार्टी की पहली बार सत्ता में आई, जिसके बाद सर्बानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री बने, जो एएएसयू के पूर्व सदस्य भी थे, और जिन्होंने असम समझौते पर भी हस्ताक्षर किए थे।[xxxvi]

मई 2005 में, भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री, श्री मनमोहन सिंह ने, जो पहले असम के राज्यसभा सदस्य भी रह चुके थे, केंद्र और असम सरकार और एएएसयू के साथ एक त्रिपक्षीय बैठक की अध्यक्षता की, जहाँ एक समझौता हुआ कि असम समझौते में किए गए वादों को पूरा करने के लिए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को अद्यतन (अपडेट) करने की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। केंद्र ने असम सरकार के परामर्श से इसके तौर-तरीकों को मंजूरी दी थी।[xxxvii]

जुलाई 2009 में, असम पब्लिक वर्क्स नामक एक गैर सरकारी संगठन ने इस विनती के साथ सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया कि जिन प्रवासियों का दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया था, उनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाने चाहिए। एनजीओ ने न्यायालय से एनआरसी अद्यतन प्रक्रिया शुरू करने का अनुरोध किया। अगस्त 2013 में, याचिका सुनवाई के लिए आई और दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि एनआरसी का अद्यतन करने की कवायद शुरू होनी चाहिए।

वास्तविक कवायद फरवरी 2015 में शुरू हुई। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 31 दिसंबर, 2015 की समय सीमा चूक गई और तब से शीर्ष न्यायालय ने पूरी प्रक्रिया की निगरानी करना शुरू कर दिया। सरकार ने 31 दिसंबर, 2017 को पहली एनआरसी सूची प्रकाशित की, जिसमें “अवैध प्रवासियों” की संख्या लगभग 35 लाख थी। अंतिम संशोधित सूची 31 अगस्त, 2019 को जारी की गई थी, जिसमें लगभग 1.9 करोड़ “अवैध अप्रवासियों” की पहचान की गई थी।[xxxviii]

नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद[xxxix] राष्ट्रव्यापी एनआरसी के कार्यान्वयन के संबंध में 2019 में गृह मंत्री अमित शाह द्वारा किए गए दावे के बाद एनआरसी के विरुद्ध देशव्यापी आक्रोश भड़क उठा। जबकि पूरे भारत ने सीएए-एनआरसी अभ्यास की भेदभावपूर्ण और मनमानी प्रकृति का विरोध किया, इसके साथ ही असम राज्य के लोगों ने 1985 के असम समझौते का उल्लंघन करने के कारण नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध किया।

एनपीआर क्या है और यह सीएए के विषय के लिए कैसे प्रासंगिक है?  

सीएए, सरकार की राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, या एनपीआर योजना के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर निर्वासन और हिरासत में लिए जाने का कारण बन सकता है, इसके परिणाम असम राज्य में भी, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, या एनआरसी के समान हो सकते हैं।[xl]

राष्ट्रव्यापी एनपीआर के तहत, नागरिकों और गैर-नागरिकों सहित सभी लोग, जो आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें “अवैध प्रवासी” माना जाएगा। हालाँकि, मुस्लिम, यहूदी, बहाईयों और नास्तिकों को छोड़कर सभी धार्मिक समुदायों को नए संशोधन के अनुसार शीघ्रता से नागरिकता दी जाएगी।[xli]

विशेष रूप से, भारतीय मुस्लिम समुदाय ने, असम में उत्पन्न हुई समस्याओं के कारण सीएए- एनआरसी/एनपीआर के कार्यान्वयन की कवायद बारे में चिंता जताई है, जिसमें लगभग दो करोड़ लोगों को एनआरसी सूची से बाहर रखा गया है। उन बाहर रखे गए लोगों में से अधिकांश नस्लीय रूप से बंगाली हैं, जिन पर अधिकारी अब बांग्लादेश की सीमा से अवैध रूप से भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने का आरोप लगा रहे हैं।[xlii]

उपसंहार

यह स्पष्ट है कि भारत को 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौते और इसके 1967 के मसौदे के अनुरूप शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए एक कानून की आवश्यकता है, जिसका मुख्य कारण भारत के भारत के संविधान में “अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने” के लिए “राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानजनक संबंध बनाए रखने” और “अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के लिए सम्मान को बढ़ावा देने” के लिए घोषणापत्र के अनुच्छेद 51 के तहत प्रदान की गई राज्य नीति के निर्देश हैं। शरणार्थी नीति में संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अन्य अनुबंधों और संधियों में निहित मानवीय गरिमा को स्वीकार करने की भी आवश्यकता है, जिसमें मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध और अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौता शामिल हैं, जिनमें सभी पर भारत द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं और मंजूर किया गया है।

जैसा कि बंसारी कामदार ने द डिप्लोमैट में अपने लेख में कहा था, “भारत को एक शरणार्थी कानून की आवश्यकता है, लेकिन इसे बहिष्करणवादी नहीं होना चाहिए।” चूंकि 2019 का नागरिकता संशोधन अधिनियम सीधे तौर पर मुसलमानों, यहूदियों, बहाईयों और नास्तिकों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण है, इसलिए यह भारतीय न्यायालयों द्वारा रद्द किए जाने का हकदार है। यह तथ्य कि बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अलावा धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अन्य पड़ोसी देशों को बाहर करने के लिए कोई तर्क प्रदान नहीं किया गया है, यह भी इस कानून की मनमानी और अस्पष्टता पर प्रकाश डालता है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम न केवल धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभावपूर्ण है बल्कि यह 1985 के असम समझौते का उल्लंघन भी है। यह सभी के लिए दुख का स्रोत रहा है, चाहे उनका दृष्टिकोण कुछ भी हो। इसके अलावा, जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में जनवरी 2020 में सेवानिवृत्त नौकरशाहों और अधिकारियों के एक समूह द्वारा टिप्पणी की गई थी कि सीएए-एनआरसी/एनपीआर के लागू होने के कारण होने वाला विस्थापन अकल्पनीय है और यह राष्ट्र की स्थिरता के लिए हानिकारक होगा। समूह ने सार्वजनिक रूप से चेतावनी देते हुए कहा कि एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी प्रक्रिया को “स्थानीय दबावों और विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्यों के कारण मनमाने और भेदभावपूर्ण ढंग से लागू किए जाने की संभावना है, बड़े पैमाने पर बेलगाम भ्रष्टाचार की संभावना भी बहुत अधिक है।”[xliii]

इसलिए, कुल मिलाकर, अपने-अपने देशों में धार्मिक उत्पीड़न से भागकर भारत में शरण लेने वाले शरणार्थियों की कानूनी स्थिति के लिए एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, सुरक्षा और सम्मान के संबंध में व्यावहारिक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून को ध्यान में रखते हुए हो।

पाद टिप्पणी

[i]अचिन विनायक, “सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट-हू इज एन इंडियन सिटीजन?” द लीफलेट, सितंबर, 17, 2020 https://www.theleaflet.in/citizenship-amendment-act-who-is-an-indian-citizen/

[ii]धारा 2, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019।

[iii]अचिन विनायक, “सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट-हू इज एन इंडियन सिटीजन?” द लीफलेट, सितंबर, 17, 2020 https://www.theleaflet.in/citizenship-amendment-act-who-is-an-indian-citizen/

[iv]विनायक, “सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट।”

[v]धारा 3, नागरिकता अधिनियम, 1955.

[vi]धारा 4, नागरिकता अधिनियम, 1955.

[vii]धारा 5, नागरिकता अधिनियम, 1955.

[viii]धारा 6, नागरिकता अधिनियम, 1955.

[ix]“सीएए: चेंजेस इन क्राइटीरिया सिंस 1955 टिल डेट,” आउट्लुक इंडिया, जनवरी, 18, 2020

[x]धारा 2 (बी), नागरिकता अधिनियम, 1955.

[xi]व्याख्या 2, धारा 5, नागरिकता अधिनियम, 1955. “भारतीय मूल का” का अर्थ है कोई भी व्यक्ति जिसके माता-पिता या उसके माता-पिता में से कोई भी अविभाजित भारत में या किसी ऐसे अन्य क्षेत्र में जन्मा था जो अगस्त 1947 के 15वें दिन के बाद भारत का हिस्सा बना था।

[xii]शर्तें लागू, केवल विशेष परिस्थितियों में ही अनुमति दी गई है।

[xiii]अचिन विनायक, “सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट-हू इज एन इंडियन सिटीजन?” द लीफलेट, सितंबर, 17, 2020 https://www.theleaflet.in/citizenship-amendment-act-who-is-an-indian-citizen/

[xiv]बंसारी कामदार: इंडियन रिफ्यूजी पॉलिसी, फ्रॉम स्ट्रैटिजिक ऐम्बिग्यूअटी टू एक्सकलूजन, द डिप्लोमेट, फरवरी 3, 2020 https://thediplomat.com/2020/02/indian-refugee-policy-from-strategic-ambiguity-to-exclusion/

[xv] ब्रायन ग्रिम, “द नंबर्स ऑफ रीलिजियस फ़्रीडम,” फिलम्ड 2013 एट टेडएक्स डेला विया कॉन्सिलियाज़ियोन, वीडियो, 7:53 https://fabo.org/pluginfile.php/12701/course/section/2786/The%20numbers%20of%20religious%20freedom%20Brian%20J.%20Grim%20at%20TEDxViadellaConciliazione.mp4

[xvi]मार्कंडेय काटजू, ध्रुति कपाड़िया, वाय द सिटीजनशिप (अमेंडमेंट) एक्ट बिल इज अनकॉन्स्टिट्यूशनल, द वायर, दिसम्बर 13, 2019, https://thewire.in/law/citizenship-amendment-bill-unconstitutional

[xvii]भारत का संविधान, अनुच्छेद 14: राज्य भारत के क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

[xviii]बंसारी कामदार: इंडियन रिफ्यूजी पॉलिसी, फ्रॉम स्ट्रैटिजिक ऐम्बिग्यूअटी टू एक्सकलूजन, द डिप्लोमेट, फरवरी 3, 2020 https://thediplomat.com/2020/02/indian-refugee-policy-from-strategic-ambiguity-to-exclusion/  

[xix]बंसारी कामदार: इंडियन रिफ्यूजी पॉलिसी, फ्रॉम स्ट्रैटिजिक ऐम्बिग्यूअटी टू एक्सकलूजन, द डिप्लोमेट, फरवरी 3, 2020 https://thediplomat.com/2020/02/indian-refugee-policy-from-strategic-ambiguity-to-exclusion/  

[xx](1978) 1 SCC 248.

[xxi](1996) 1 SCC 742.

[xxii]1999 CriLJ 919, देखें: https://indiankanoon.org/doc/1593094/

[xxiii]WP (Crl) No. 1884/2015, देखें: https://indiankanoon.org/doc/168154907/

[xxiv]अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत, गैर-वापसी का सिद्धांत आश्वासन देता है कि किसी भी व्यक्ति ऐसे देश में वापस नहीं भेजा जाना चाहिए जहाँ उन्हें यातना, क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड और अन्य अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ेगा, https://www.ohchr.org/Documents/Issues/Migration/GlobalCompactMigration/ThePrincipleNon-RefoulementUnderInternationalHumanRightsLaw.pdf  

[xxv]देखें:https://www.constitutionofindia.net/constitution_of_india/fundamental_rights/articles/Article%2013#:~:text=(1)%20All%20laws%20in%20force,of%20such%20inconsistency%2C%20be%20void.  

[xxvi](1973) 4 SCC 225, देखें: https://indiankanoon.org/doc/257876/  

[xxvii]देखें: https://www.unhcr.org/3b66c2aa10  

[xxviii]देविका नायर एंड संग्राम चिन्नप्पा, “रिफाउलमेंट, रोहिंग्या एंड ए रिफ्यूजी पॉलिसी फॉर इंडिया”, द वायर, 17 अप्रैल, 2021,

[xxix]नायर, चिन्नप्पा, “रिफाउलमेंट”, https://thewire.in/government/refoulement-rohingya-and-a-refugee-policy-for-india

[xxx]नायर, चिन्नप्पा, “रिफाउलमेंट”, https://thewire.in/government/refoulement-rohingya-and-a-refugee-policy-for-india

[xxxi]“शूट द ट्रेटर्स: डिस्क्रिमनशन अगेनस्ट मुस्लिम अन्डर इंडिया’स न्यू सिटीजनशिप पॉलिसी, ह्यूमन्स राइट्स वाच, अप्रैल 9, 2020 https://www.hrw.org/report/2020/04/09/shoot-traitors/discrimination-against-muslims-under-indias-new-citizenship-policy

[xxxii]पराग चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम, असम मूवमेंट एंड द असम अकॉर्ड एंड द इम्प्लिमेन्टेशन ऑफ एनआरसी-सीएए,” नॉर्थ ईस्ट टुड़े, 23 दिसंबर, 2019, https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxiii] चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxiv] चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxv]चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxvi] चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxvii] चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxviii]चामुआ, “अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ असम” https://www.northeasttoday.in/2019/12/23/a-brief-history-of-assam-assam-movement-assam-accord-and-the-implementation-of-nrc-caa/

[xxxix]नेशनवाइड एनआरसी रोलआउट नॉट डिसाइडेड येट, प्लान्ड, 'राइट मेसेजिंग' टू टैकल एनपीआर रूमर्स, स्क्रॉल, फरवरी 3, 2021, https://scroll.in/latest/985806/nationwide-nrc-rollout-not-decided-yet-planned-right-messaging-to-tackle-npr-rumours-centre

[xl]कामदार, “इंडियन रिफ्यूजी पॉलिसी” https://thediplomat.com/2020/02/indian-refugee-policy-from-strategic-ambiguity-to-exclusion/   

[xli]कामदार, “इंडियन रिफ्यूजी पॉलिसी” https://thediplomat.com/2020/02/indian-refugee-policy-from-strategic-ambiguity-to-exclusion/ 

[xlii] “शूट द ट्रेटर्स” https://www.hrw.org/report/2020/04/09/shoot-traitors/discrimination-against-muslims-under-indias-new-citizenship-policy

[xliii] “शूट द ट्रेटर्स: डिस्क्रिमनशन अगेनस्ट मुस्लिम अन्डर इंडिया’स न्यू सिटीजनशिप पॉलिसी,” ह्यूमन्स राइट्स वाच, अप्रैल 9, 2020 https://www.hrw.org/report/2020/04/09/shoot-traitors/discrimination-against-muslims-under-indias-new-citizenship-policy