भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक वादे के लिए महिलाओं को समान रूप से हकदार

भारतीय संविधानप के अनुच्छेद 25 में यह निर्धारित किया गया है कि सभी व्यक्ति अंतःकरण की स्वतंत्रता और कुछ प्रतिबंधों के अधीन धर्म को स्वतंत्र रूप से स्वीकार करने, अमल करने और प्रचार करने का अधिकार प्राप्त है। यह संवैधानिक गारंटी बिना किसी लिंग भेद के सभी को समान रूप से प्राप्त है और इस प्रकार यह सभी के लिए बिल्कुल सरल होना चाहिए। भारत में हर महिला को धार्मिक स्वतंत्रता का समान हक प्राप्त है। हालांकि यह अधिकार भारत में महिलाओं को समान रूप से आसानी से सुलभ नहीं हो पाती है।

कठिनाई को समझने के लिए हमें यह मानना होगा कि धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता समुदाय विशेष की अपेक्षा व्यक्तिगत रूप से अधिक है। यह सुनिश्चित करना कि आस्तिकों के एक समुदाय को धर्म की स्वतंत्रता है, इसका तात्पर्य यह है कि उस समुदाय के सभी व्यक्तियों की धार्मिक समझ अधिक समृद्ध है। इसमें एक व्यक्तिगत महिला शामिल है। इसलिए धार्मिक संप्रदायों (और उसके वर्गों) को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत धर्म के मामलों में अपने मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता की गारंटी है। हालांकि, समस्याए तब पैदा होती हैं जब धार्मिक मान्यताओं वाले एक व्यक्ति की धारणा समुदाय से अलग होती है। इसके अलावा सभी निर्णय लेने का अधिकार मुख्य रूप से पुरुषों में निहित होने के कारण महिला की व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता का अक्सर दमन किया जाता है। 

पूर्ण अधिकार नहीं

यह स्पष्ट है कि धार्मिक स्वतंत्रता पूर्ण अधिकार क्यों नहीं हो सकती। यह व्यक्तियों के अधिकारों, धार्मिक समुदायों के अधिकारों और राज्य के हितों के बीच एक नाजुक संतुलन है। अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। यह भारतीय संविधान के भाग-3 के अन्य प्रावधानों के अधीन भी है जिसमें सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार शामिल हैं। इसी तरह, अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक संप्रदायों को भी यही अधिकार की गारंटी है और यह सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता के अधीन भी है।

हालांकि लेख में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया है कि यह अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों के अधीन है, उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयोंपपप ने यह स्थापित किया है कि भारत के संविधान के भाग-3 के तहत अधिकारों की योजना विभिन्न मौलिक अधिकारों के सामंजस्यपूर्ण निर्माण पर बल देती है। एक भी अधिकार का प्रयोग किसी दूसरे के अधिकारों का हनन करने के लिए नहीं किया जा सकता है। राज्य और गैर-राज्य संस्थाओं द्वारा किसी व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा का उल्लंघन असंवैधानिक है, इसलिए अस्वीकार्य है। किसी भी व्यक्ति को न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूलभूत मूल्यों से वंचित नहीं किया जा सकता है, जैसा कि संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।

इस प्रपत्र का दायरा

हाल के ऐतिहासिक निर्णयों में, उच्चतम न्यायालय ने सभी के लिए धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार और महिलाओं के मौलिक अधिकारों और गरिमा की सामाजिक वर्गीकरण (जैसे कि जाति, वर्ग, और लिंग की परस्पर प्रकृति, जो किसी दिए गए व्यक्ति या समूह पर लागू होती है, जिसे भेदभाव या नुकसान की सर्वव्यापकता और अन्योन्याश्रित प्रणाली) ;पदजमतेमबजपवदंसपजलद्ध बनाने के रूप में माना जाता है, को नियंत्रित करने वाला कानून निर्धारित किया है। अदालत प्रत्येक अधिकार की सीमा का पता लगाने के लिए प्रयासरत है ताकि उचित संतुलन बनाने के लिए प्रयास की जा सके। इन हालिया फैसलों के आधार पर इस क्षेत्र को नियंत्रित करने वाला मौजूदा कानूनी ढांचा इस लेख का आधार और दायरा बनाते हैं। इन निर्णयों में उच्चतम न्यायालय द्वारा उद्धृत किये गये मूल कारणों एवं सिद्धान्तों का आलोचनात्मक विश्लेषण भविष्य में जांच का विषय हो सकता है।

अधिकारों की सामाजिक वर्गीकरण ;पदजमतेमबजपवदंसपजलद्ध को और अधिक प्रभावकारी बनाना

अधिकारों की सामाजिक वर्गीकरण ;पदजमतेमबजपवदंसपजलद्ध को और अधिक प्रभावकारी बनानाः

इस धारा में हम चार ऐसे कारकों को देखते हैं, जिनके कारण धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार और महिलाओं के मौलिक अधिकार और अधिक प्रभावकारी हुए हैंः-

  1. सामूहिक पहचान का व्यक्तिगत पहचान में परिवर्तनपअः हाल के दशकों में, भारतीय समाज में, व्यक्तियों और समाज के बीच संबंधों में भारी परिवर्तन हुआ है। कुछ सदियों पहले यूरोपीय समाज को बदलने वाले बदलाव के सिद्धांतों को अब भारतीय समाज में देखा जा सकता है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप सामूहिक पहचान का रूपांतर व्यक्तिगत पहचान में हुआ है। यह उन महिलाओं में  तेजी से परिलक्षित हुई है जो अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाना चाहती हैं और अपने अधिकारों और सम्मान का उल्लंघन होने पर बोलने का साहस रखती हैं।
  2. संवैधानिक दृष्टिः जब स्वतंत्र भारत ने खुद को संविधान दिया, तो इसने सामाजिक सुधार को प्राथमिकता दी। भारत के लोग सदियों से अपमानित हो रहे थे और अब अपने भाग्य के साथ मेहनत भी कर रहे थे, जहां हर व्यक्ति की मानवीय गरिमा को बरकरार रखा जाए। लिंग, जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर व्यक्तियों के बहिष्कार और भेदभाव का इस संवैधानिक दृष्टि में कोई स्थान नहीं होगा और पिछले 70 वर्षों में भारत ने इस दिशा में काफी प्रगति की है, जिसमें परिवर्तनकारी विधान और न्यायनिर्णयन शामिल हैं। इससे महिलाओं को लैंगिक भेदभाव के चंगुल से मुक्त होने में मदद मिली है।
  3. दमनकारी धार्मिक प्रथाओं पर सवाल उठानाः संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में ‘‘धर्म‘‘ के अर्थ के तहत सभी धार्मिक प्रथाओं की रक्षा नहीं की जाती है। 1954 के ‘‘शिरूर मठ‘‘ के फैसलेअप में, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘आवश्यक धार्मिक प्रथाओं‘‘ के परीक्षण का संश्लेषण किया। उसके अनुसार, केवल वे धार्मिक प्रथाएं जो किसी धर्म के लिए आवश्यक या अभिन्न हैं, संवैधानिक संरक्षण के लिए अर्हता प्राप्त करेंगी। अब, एक महिला जो अपनी मानवीय गरिमा और मौलिक अधिकारों को बनाए रखने के संवैधानिक वायदे से अवगत है, से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपने विश्वास को धार्मिक प्रथाओं के आगे झुक जाए जिसे वह दमनकारी और भेदभावपूर्ण मानती है। लेकिन धार्मिक समुदाय के नेता इन कुछ संदिग्ध प्रथाओं को ‘‘आवश्यक‘‘ मानते हैं। ऐसे नेताओं को वह मूर्ख समझती हैं और ‘‘अनिवार्यता परीक्षणं‘‘ं के लिए न्यायलायों से हस्तक्षेप की अपेक्षा करती हैं। 
  4. सिविल सोसायटी की भूमिकाः सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एसपी गुप्ताअपप मामले में जनहित याचिकाओं (पीआईएल) की वैधता को मान्यता दी। न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने अपने फैसले में कहा कि जनता या सदाशयी सामाजिक कार्य समूह का कोई भी सदस्य उन व्यक्तियों की ओर से अदालतों को का शरण ले सकता है जिनके मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है लेकिन कुछ अपरिहार्य कारणों से खुद अदालत की शरण नहीं ले पा रहे हैं। इस आशय के लिए, सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने उन महिलाओं की ओर से समय के साथ कई जनहित याचिकाएं दायर की हैं जिनके धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन उनके अपने धार्मिक समुदायों द्वारा किया गया है। नागरिक समाज के ऐसे सदस्यों को कई बार ‘‘समाज सेवा वादी‘‘ के रूप में उपहास किया गया है और असंगत कारणों से धार्मिक मामलों में जानबूझकर दखल देने का आरोप लगाया गया है। इसके बावजूद अभी भी कई ऐसे हैं जो न्याय मांगने के लिए अथक मेहनत करते हैं।

हाल के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलेः

अब भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन हालिया ऐतिहासिक निर्णयों पर नजर डालते हैं जिन्होंने महिलाओं की धार्मिक स्वतंत्रता और गरिमा को बरकरार रखा हैः--

केरल ‘लव जिहाद‘ मामलाः

दक्षिण भारतीय राज्य केरल की एक युवती हदिया को एक मामले में पूरे राष्ट्र के दृष्टि में अनकही मुश्किलों से गुजरना पड़ा, जिसमें दुनियाभर के लोगों का समर्थन मिलापअ।ं वह एक हिंदू परिवार में पैदा हुई थी और उसके माता-पिता उसे अखिला अशोकन कहकर बुलाते थे। वयस्क होने पर उसने इस्लाम धर्म को स्वीकार किया और एक मुस्लिम व्यक्ति शफीन जहांॅ से शादी की। 

धर्मांतरण और बहुधर्म विवाह को लेकर भारत में प्रतिक्रिया का इतिहास रहा है। लेकिन हदिया कभी सोच भी नहीं सकती थी कि उसे किस हद तक प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। उसके पिता यह आरोप लगाया कि उनकी लड़की षड्यंत्र का शिकार हो गयी थी और उनकी बेटी का इस्लाम में ब्रेनवॉश कर दिया गया था। उनका मानना था कि उनकी लड़की एक भयावह षडयंत्र में फंस गयी है, जिसे कुछ आतंकवादी संगठनों द्वारा मानव बम के रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए देश से बाहर तस्करी कर ले जायी गयी थी। नतीजतन, उसके पति की गहन जांच की गयी है और उसपर जेहादी आतंकी समूहों से संबंध रखने का आरोप लगाया गया है। हदिया ने आरोप लगाया कि उसे उसी के घर में बंदी बनाकर रखा गया था और उसके माता-पिता प्रताड़ित उसे प्रताड़ित करते थे। उसे बाहर जाने, पढ़ाई को आगे पढ़ने या पति से मिलने की इजाजत नहीं थी। 

हदिया और उसके पिता ने केरल के उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसने “स्वयं वैधानिक अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थता“ ;च्ंतमदे च्ंजतपंमद्ध के असाधारण क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया और उसके ऊपर कानूनी अभिभावकत्व ग्रहण किया। अदालत ने इस धारणा के तहत प्रकरण को देखा कि कि हालांकि हदिया एक वयस्क थी, लेकिन वह एक सूचित निर्णय लेने में असमर्थ हो गयी थी। इसके बाद हाई कोर्ट ने हदिया और शफीन के बीच हुई शादी को रद्द कर दी जो इस्लामी परंपराओं का पालन करते हुए किया गया था।

जब मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के सामने आया, तो शीर्ष अदालत उच्च न्यायालय के फैसले के आगे फीका पड़़ गई। हाई कोर्ट ने ‘‘पितृसत्तात्मक निरंकुशता के विचार का प्रकटीकरण और संभवतः एक महिला को “गुलाम“ होने की भावना के साथ आत्म-जुनून‘‘ के रूप में पिता के बर्ताव की आलोचना की।

उच्चतम न्यायालय ने शादी को रद्द करने के उच्च न्यायालय के फैसले को भी पलट दिया और हदिया पर अपनी महत्वाकांक्षा के रूप में उन व्यक्तियों की रक्षा करने के लिए राज्य की अंतर्निहित शक्ति और प्राधिकार प्रदान करने वाले “स्वयं वैधानिक अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थता“ ;च्ंतमदे च्ंजतपंमद्ध (जो राज्य की अंतर्निहित शक्ति और प्राधिकार प्रदान करता है) को रद्द कर दिया। 

धार्मिक निष्ठा के मामलों में हदिया की व्यक्तिगत स्वायत्तता की रक्षा में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा किः 

‘‘एक व्यक्ति की धार्मिक निष्ठा उसके सार्थक अस्तित्व के लिए आंतरिक है। धार्मिक निष्ठा की स्वतंत्रता के लिए उसकी स्वायत्तता आवश्यक है, और यह संविधान के मुख्य मानदंडों को मजबूत करता है। धार्मिक निष्ठा का चयन व्यक्तिवाद का मूल आधार है और इसके बिना पसंद का अधिकार धूमिल हो जाता है। यह याद रखना होगा कि किसी अधिकार की अनुभूति अधिकार की प्राप्ति से अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा अहसास वास्तव में किसी भी प्रकार की सामाजिक कुरीति को दर्शाता है और पितृसत्तात्मक वर्चस्व को बनाए रखता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यक्तिवादी निष्ठा और पसंद की अभिव्यक्ति अधिकारों के फलकीकरण के मूल हैं। इस प्रकार, हम इसे एक अपरिहार्य आरम्भ कहना चाहते हैं।

इस फैसले ने हदिया की धार्मिक स्वतंत्रता, स्वायत्तता और निजता के परस्पर क्रिया का भी प्रदर्शन कियाः 

‘‘शादी की संवेदनशीलता गोपनीयता में निहित है जो अलंघनीय है। व्यक्ति के जीवन साथी चुनने का अधिकार धार्मिक निष्ठा से प्रभावित नहीं है। संविधान प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से धर्म का पालन करने, उसका दावा करने और प्रचारित करने का अधिकार देता है। धार्मिक निष्ठा एवं विश्वास के बीच वास्तव में शादी ऐसा मामला है जहां व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता सर्वोच्च है। कानून वैध विवाह के लिए शर्तें निर्धारित करता है जो रिस्तों के चिरस्थाई बनाने के लिए होते हैं। न तो राज्य और न ही कानून भागीदारों का विकल्प तय कर सकता है या इन मामलों पर निर्णय लेने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की मुक्त क्षमता को सीमित कर सकता है। वे संविधान के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आधार बनाते हैं। यह तय करने में कि क्या शफीन जहां हदिया से शादी करने के लिए फिट व्यक्ति हैं, केरल, उच्च न्यायालय ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन किया है। हमारी पसन्द का सम्मान किया जाता है क्योंकि वे हमारे हैं।

“स्वतंत्रता का आंतरिक अधिकार जिसका संविधान मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी देता है, प्रत्येक व्यक्ति की उसकी क्षमतानुसार खुशी की खोज पर निर्णय लेने का अधिकार है। धार्मिक निष्ठा और विश्वास के मामले, जिसमें धार्मिक निष्ठा भी शामिल है संवैधानिक स्वतंत्रता का मूल है। संविधान आस्तिकों के साथ-साथ अज्ञेयवाद के लिए भी है। संविधान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन या धार्मिक निष्ठा के मार्ग को आगे बढ़ाने की क्षमता की रक्षा करता है, जिसका वह पालन करना चाहता है।‘‘

हदिया अंत में स्वतंत्र रूप से अपनी धार्मिक निष्ठा के साथ अपने पति के साथ उसी धार्मिक निष्ठा के साथ रहने के लिए स्वतंत्र थी। आखिरकार राष्ट्रीय जांॅच एजेंसी (एन.आई.ए.) ने उनके विवाह की वास्तविकता की जांॅच को इस निर्णय के साथ समाप्त कर दिया कि दोनों के बीच केवल प्यार था, जिहाद नहीं।ग

तीन तलाक का मामला:

शायरा बानो को तलाक-ए-बिदात के जरिए 2016 में 15 साल के उनके पति ने तुरंत, एकतरफा और स्थाई रूप से तलाक दे दिया था। उस समय भारतीय मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के बीच इस प्रथा की अनुमति थी और उन्हें एक बैठक में तीन बार “तलाक“ शब्द बोलकर उनकी सहमति के बिना अपनी पत्नी को तलाक देने का अधिकार दिया था। इस प्रथा की संवैधानिकता को शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी थी। उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 3ः2 बहुमत के आधार पर इस प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया।  

बहुमत में रहे जस्टिस कुरियन जोसेफ ने माना कि “तीन तलाक“ की धार्मिक प्रथा अनिवार्यता की कसौटी पर विफल है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 2002 के एक फैसले के आधार पर यह माना गया कि कुरान की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं होने वाली किसी भी प्रथा को इस्लाम का अनिवार्य सिद्धांत नहीं माना जा सकता। कुरान के अनुसार, तलाक की अनुमति तभी है जब उचित कारण हो और दोनों परिवारों द्वारा सुलह के प्रयासों से पहले, दो मध्यस्थों के साथ, जिसमें प्रत्येक परिवार से एक-एक व्यक्ति मध्यस्थ हो। तलाक तभी प्रभावी हो सकता है जब ये प्रयास विफल हो जाएं। तलाक पाप है और अवांछनीय है, तब पर भी इसकी अनुमति है। इसलिए कोर्ट ने तीन तलाक की प्रथा को धर्मशास्त्र एवं कानून में भी अनुचित पाया। बहुमत ने यह भी माना कि रीति और रिवाज किसी भी धर्म का एक आवश्यक तत्व इसलिए नहीं बनते हैं क्योंकि वे एक कल्पना हैं और सदियों से पालन किए जाते रहे हैं।

जस्टिस रोहिन्टन नरीमन और जस्टिस य.ू.यू. ललित, जो बहुमत में भी थे, ने अनुच्छेद 13 (1) के तहत मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 को इस हद तक शून्य पाया कि इसके द्वारा मुस्लिमों के बीच तीन तलाक की प्रथा की अनुमति थी, जिससे संबंधित प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन पाया गया। 

व्यक्तिगत कानून इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत सिर्फ इस हद तक बचाया जा सकता है क्योंकि इसमें सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता और पार्ट-3 के अन्य प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है। जबकि न्यायमूर्ति नरीमन और ललित ने तीन तलाक का समर्थन करने वाले कानूनी प्रावधान को स्वेच्छाचारी एवं मुस्लिम महिला को अनुच्छेद 14 के तहत समानता के वादे के संवैधानिक अधिकार एवं समान सुरक्षा हासिल करने के अधिकार की रक्षा करने में विफल पाया। 

सबरीमाला मंदिर प्रवेश मामलागपपपः

हर साल लाखों तीर्थयात्रियों को आकर्षित करने वाले हिंदुओं के प्रसिद्ध पहाड़ पर स्थित मंदिर सबरीमाला मंदिर में केरल हिंदू स्थलों के नियम 3 (बी) द्वारा संरक्षित रिवाज के आधार पर 10 से 50 वर्ष की उम्र के बीच की मासिक धर्मस्वला महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी गई। इस रिवाज और शासन की संवैधानिकता को भारत के सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। अदालत की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 4ः1 के बहुमत से निषेध को रद्द कर दिया। 

अधिकांश न्यायाधीशों ने सबरीमाला मंदिर को ‘‘सार्वजनिक चरित्र के हिंदू धार्मिक संस्थाओं‘‘ के अर्थ के अनुरूप नहीं पाया। उन्होंने यह भी निर्धारित किया कि देवता अयप्पा के भक्त अनुच्छेद 26 के तहत एक अलग धार्मिक संप्रदाय का गठन नहीं करते हैं, बल्कि ‘‘हिंदुओं के सभी वर्ग और संप्रदायों‘‘ के अर्थ में शामिल हैं। यह प्रासंगिक है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 25 (2) में कहा गया है कि “इस अनुच्छेद में कुछ भी किसी मौजूदा कानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा या राज्य को कोई कानून बनाने से रोकेगा..... सामाजिक कल्याण और सुधार या हिंदुओं के सभी वर्गों एवं संप्रदायों के लिए एक सार्वजनिक चरित्र की हिंदू धार्मिक संस्थाओं के रूप में खुला है।“

इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महिलाओं के एक वर्ग को सार्वजनिक चरित्र के हिंदू पूजा स्थल में प्रवेश करने से रोकने का रिवाज यहां और भाग प्प्प् के तहत अन्य संवैधानिक प्रावधानों में सामाजिक सुधार की संवैधानिक दृष्टि के विपरीत है।   

यह रिवाज को लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण होने और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करने वाला भी था। अधिकांश न्यायाधीशों ने धार्मिक रीति-रिवाज को अपवर्जनात्मक पाया। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस रिवाज को छुआछूत कहा, जो अनुच्छेद 17 के तहत वर्जित प्रथा है। उन्होंने एक महिला के शरीर विज्ञान के आधार पर प्रदूषण और शुद्धता की धारणाओं को एक महिला की निजता और स्वायत्तता (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन करने और महिलाओं की उन्नति को बाधित करने के लिए पुरातन पितृसत्तात्मक अवधारणा की अभिव्यक्ति भी बताया। 

बहुमत ने निषेधात्मक रिवाज को ‘‘आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है‘‘ होना चाहिए माना। 

इस मामले में असहमति का फैसला सुनाने वाली न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने एक निष्कर्ष निकाला कि गैर-भक्तों से मिलकर एक संघ द्वारा मंदिर के रिवाज को चुनौती देने का अधिकार नहीं था। हालांकि अधिकांश जजों ने जनहित याचिका की अनुमति दे दी। धार्मिक परंपरा के समूह से बाहर के व्यक्तियों द्वारा धर्म के मामलों में हस्तक्षेप न करने पर न्यायमूर्ति मल्होत्रा के विचार प्रासंगिक हैं और आगे की जांच योग्य है। 

गाथा जारी है

इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने 3ः2 के बहुमत से मामले को बड़ी पीठ के समक्ष न्यायनिर्णयन के लिए भेज दिया। हालांकि, उन्होंने इस मामले में पहले के 4ः1 के न्यायनिर्णय के कृयान्वयन पर रोक नहीं लगायी थी।

इसके परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने मामले से संबंधित मुद्दों पर एकबार पुनः विचार किया। दरअसल, तीन और मामलों से उत्पन्न होने वाले मुद्दों, जो अधिकारों के सामाजिक वर्गीकरण ;पदजमतेमबजपवदंसपजलद्ध के बारे में भी है, को उसी नौ न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनवाई मंे जोड़ दिया गया है। इन तीन मामलों में निम्नलिखित चुनौतियां शामिल हैं-

क. पारसी महिलाओं का निषेध जिन्होंने गैर-पारसी पुरुषों को अग्नि मंदिरगअ में प्रवेश करके शादी की है;

ख. महिला जननांग विकृतिगअप (थ्ळड) या खतना का अभ्यास जो दाऊदी मुसलमानों के बीच प्रचलित है; और

ब. मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश से संबंधित मामलागअपप ।

नौ न्यायाधीशों ने कानून के निम्नलिखित सात प्रश्नों का उत्तर देने का अवांछनीय कार्यगअपपप किया है।

  1. भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की वांछनीयता और दायरा क्या है?
  2. अनुच्छेद 25 के तहत व्यक्तियों के अधिकारों और अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक संप्रदायों के बीच परस्पर प्रभाव क्या है?
  3. क्या अनुच्छेद 26 के तहत एक धार्मिक संप्रदाय के अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अलावा संविधान के भाग-3 के अन्य प्रावधानों के अधीन हैं?
  4. अनुच्छेद 25 और 26 के अंतर्गत “नैतिकता“ शब्द का प्रभाव और सीमा क्या है और क्या इसका उद्देश्य संवैधानिक नैतिकता को शामिल करना है?
  5. अनुच्छेद 25 में संदर्भित धार्मिक प्रथा के संबंध में न्यायिक समीक्षा का प्रभाव और सीमा क्या है?
  6. अनुच्छेद 25 (2) (ब) में ‘‘हिंदुओं की धाराओं‘‘ की अभिव्यक्ति का क्या अर्थ है?
  7. क्या कोई व्यक्ति जो किसी धार्मिक समूह के धार्मिक संप्रदाय से संबंधित नहीं है जनहित याचिका दायर करके उनकी प्रथाओं पर सवाल उठा सकता है?

उच्चतम न्यायालय ने निश्चित रूप से महिलाओं के धर्म, गरिमा और मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता को कायम रखते हुए कुछ बहुत ही प्रगतिशील निर्णय दिए हैं। हालांकि, हमें अभी इन मामलों पर आखिरी अभिव्यक्ति बाकी है। उपर्युक्त सात प्रश्नों का उत्तर न केवल इन चार मामलों में निर्णयों का मार्गदर्शन करेगा जिन्हें एक साथ मिला दिया गया है बल्कि आने वाले वर्षों में कई और हैं।