भारत के ईशनिंदा कानूनों को समझना
ब्लैक्स लॉ डिक्शनरी की परिभाषा के अनुसार, ईशनिंदा का अर्थ है, “परमेश्वर, धर्म, पवित्र चिन्ह, या किसी पवित्र समझी जाने वाली चीज़ का अपमान।” i दूसरे शब्दों में, परमेश्वर या किसी धर्मशास्त्र या रिवाज के अंतर्गत पवित्र समझी जाने वाली किसी भी चीज की निंदा या अपमान करना, ईशनिंदा के योग्य होगा।
अब्राहम से निकले धर्मों में, परमेश्वर ने मूसा को जो व्यवस्था दी थी उसके अनुसार ईशनिंदा को गम्भीर अपराध माना जाता था। और उसके लिए जरूरी दण्ड यह था कि निंदक को पत्थरवाह करके मार डाल जाए।
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रिटेन के सामान्य कानून में, एक अपराध के रूप में ईशनिंदा का मामला सबसे पहली बार 1614 के एटवुड मामले में सामने आया था, जिसकी बाद में 1676 के टेलर मामले में पुष्टि हुई है, जहाँ पर न्यायालय ने निर्णय सुनाया था कि “ईसाई धर्म इंग्लैंड के कानूनों का आधार है।”
इसके साथ ही, कुरान भी, दृढ़ता से ईशनिंदा का विरोध करती है और इसे जघन्य अपराध मानती है। परिणामस्वरूप, कई मुस्लिम देशों में ईशनिंदा भारी दण्ड के साथ प्रतिबंधित है।
द इंटरनेशनल कवनेन्ट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स, 1976 (भारत द्वारा हस्ताक्षरित और अनुसमर्थित), सदस्य राज्यों को राष्ट्रीय, नस्लीय या धार्मिक घृणा की ऐसी किसी भी हिमायत पर रोक लगाने की अनुमति देता है, जो भेदभाव, शत्रुता या हिंसा के लिए उकसाती है। अमेरिका स्थित प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक विश्लेषण से पता चला है कि दुनिया के देशों और क्षेत्रों के लगभग एक चौथाई भाग (26%) में ईशनिंदा विरोधी कानून या नीतियां (2014 के अनुसार) मौजूद हैं। भारतीय संदर्भ में, भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 295A को ईशनिंदा-विरोधी कानून माना जाता है।
यह लेख उस विधायी ढाँचे और उन प्रमुख चुनौतियों की पड़ताल करता है जो आईपीसी की धारा 295A भारत के अंतर्गत विभिन्न संवैधानिक न्यायालयों द्वारा दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों के प्रकाश में धार्मिक स्वतंत्रता देता है।
A. विधायी ढाँचा
1857 के विद्रोह के बाद, औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार ने भारत में न्याय व्यवस्था पर कब्जा किया, और आपराधिक कानूनी प्रक्रियाओं का निर्धारण और विधानों को लागू करके भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। ब्रिटिश राज ने भारत के लिए एक सामान्य दण्ड संहिता प्रदान करने के लिए आईपीसी, 1860vi अधिनियम बनाया। हालाँकि, धारा 295A, बाद का विचार था जिसे अपराध कानून (संशोधन) अधिनियम, 1927 में जोड़ा गया था।
धारा 295A में निर्दिष्ट है कि “जो कोई, भारत के नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के विमर्शित और विद्वेषपूर्ण आशय से को शब्दों के द्वारा, या तो मौखिक या लिखित, या संकेतों या दृश्य चित्र या अन्य रूप में, निंदा करता है या उस वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने का प्रयास करता है तो उसे कारावास का दण्ड दिया जाएगा, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है या जुर्माना लगाया जाएगा या दोनों हो सकते हैं। विधान-मण्डल का इरादा ऐसे सभी कृत्यों को शामिल करने का नहीं था, बल्कि केवल वे जो जानबूझकर किए गए हैं और दुर्भावनापूर्ण हैं। इसलिए, जो कोई भी इस तरह की आपराधिक सोच के साथ किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने का प्रयास करता है तो वह कथित रूप से इस धारा के अधीन अपराध करता है।
A.1 रंगीला रसूल का मामला
कई लोगों का मानना है कि लाहौर उच्च न्यायालयx द्वारा 1927 में “रंगीला रसूल के मामले” में दिए गए फैसले के विरुद्ध बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और व्यापक आंदोलन के कारण आईपीसी में कथित दंडात्मक प्रावधान डाला गया था। आईपीसी की धारा 153A की व्याख्या करते हुए, जो कि उस समय के विधान में मौजूद थी, न्यायालय ने कहा:
“अब, यह पर्चा जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, मसले पर उस ढंग से चर्चा करता है, जिससे किसी भी समुदाय के सभी सभ्य व्यक्तियों की भावनाओं को केवल भड़काया जा सकता है, इसके साथ ही यह कुछ मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को भी ठेस पहुँचा सकता है, पर मैं यह नहीं कह सकता कि यह महामहिम की प्रजा के विभिन्न वर्गों के बीच जरूरी तौर पर शत्रुता और घृणा की भावनाओं को बढ़ावा देता है। यह परिणाम हो सकता है, लेकिन, जैसा कि मैंने दिखाने का प्रयास किया है, कि इस बात को धारा परखने का आधार नहीं बनाया जा सकता। विद्वान अधिवक्ता स्वीकार करता है कि ऐसी कोई और धारा मौजूद नहीं है जो इस विशेष मामले को सम्मिलित करती हो।”
लाहौर उच्च न्यायालय ने अभियुक्त की दोष-सिद्धि को अलग रखा और निर्णय पर खेद प्रकट करते हुए, पुनरीक्षण याचिका की मंजूरी दे दी, क्योंकि वह निर्णय कानून की कथित खामी के कारण मजबूर होकर लिया गया था। दरअसल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा काली चरण शर्मा बनाम राजा-सम्राट में पूरी तरह से विपरीत रुख पहले से ही अपनाया जा चुका था, जिसमें न्यायमूर्ति लिंडसे का मत था:
“मैं इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हूँ कि एक मिशनरी को अपने निजी धर्म के गुणों की वकालत करने की अनुमति के लिए दिए गए लाइसेंस की कोई सीमा नहीं है, और न ही मैं किसी निराकार परमेश्वर को मानने वाले धर्म की व्यवस्था और उस पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों पर किए गए हमले में भेद की सराहना कर सकता हूँ। मुझे नहीं लगता कि मानवीय रूप से किसी धार्मिक मान्यता की बदनामी करना या उपहास करना, उस धर्म के मानने वाले लोगों के आक्रोश और घृणा को भड़काए बिना सम्भव है... निस्संदेह यह पहचाना जाना चाहिए कि उन देशों में जहाँ पर धार्मिक स्वतंत्रता मौजूद है, दूसरों की धार्मिक मान्यताओं की आलोचना करने की स्वतंत्रता के निश्चित पैमाने के साथ-साथ धार्मिक विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के सम्बन्ध में एक निश्चित स्वतंत्रता को स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन यह सोचना सभी तर्कों के विपरीत है कि आलोचना करने की स्वतंत्रता में अभद्र और अपमानजनक भाषा का सहारा लेने का लाइसेंस शामिल है जो इस समय मेरे सामने रखी हुई पुस्तक की विशेषता है।”
इस मोड़ पर, विधान-मण्डल ने इस मामले में कदम रखा और दण्ड (संशोधन) अधिनियम, 1927, में धारा 295A जोड़ने के द्वारा ईशनिंदा को अपराध घोषित करने वाले नए प्रावधान का परिचय दिया, जिसमें प्रस्तावित था “महामहिम की प्रजा के किसी भी वर्ग के धर्म का जानबूझकर अपमान करना या अपमान का प्रयास करना अथवा धार्मिक भावनाओं को भड़काना या भड़काने के प्रयास को एक विशिष्ट अपराध बनाने के उद्देश्य से आईपीसी के अध्याय 15 में एक नई धारा जोड़ दी गई जाए।”
हालाँकि आईपीसी को ब्रिटिश राज के अंतर्गत लागू किया गया था, लेकिन जब भारत ने 1950 में अपना संविधान अपनाया तो यह संवैधानिकता की परीक्षा में खरी उतरी। धारा 295A को इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र रखने वाली धारा के रूप में भी देखा जाने लगा, क्योंकि इसने धार्मिक खंडों और वर्गों के विरुद्ध दुर्भावनापूर्ण और जानबूझकर किए गए कृत्यों का अपराधीकरण करने द्वारा, समान रूप से, सब लोगों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा की।
A.2 स्वतंत्रता के बाद न्यायशास्त्र
संविधान के तहत भारत के सभी नागरिकों को तर्कसंगत प्रतिबंधों के साथ बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई। स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों से ही इन प्रतिबंधों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जाती रही है।
रोमेश थापर के मामलेxv में, मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट, 1949 की धारा 9 (1-A) की संवैधानिक वैधता की व्याख्या करते हुए, शीर्ष न्यायालय ने “सामाजिक व्यवस्था” वाक्यांश को एक व्यापक गुणार्थ और महत्व प्रदान किया। इसमें ऐसी सामाजिक शांति शामिल है जो “उनके द्वारा स्थापित सरकार के द्वारा लागू किए गए आंतरिक नियमों के परिणामस्वरूप राजनीतिक समाज के सदस्यों बीच में प्रचलित है।” यह निर्णय दो प्रस्तावों का नींव डालता है:
- सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना सामाजिक शांति बनाए रखने के तुल्य है; और
- सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध किए गए अपराध दो श्रेणियों में विभाजित हैं, जो हैं, (क) राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करना, और (ख) पूर्णतः स्थानीय प्रतिष्ठा को भंग करने के छोटे अपराध।
तत्पश्चात, संसद ने शीघ्र ही कानून की इस खामी में सुधार किया और संवैधानिक (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 के अनुच्छेद 19 (2) में प्रदान किए गए इन प्रतिबंधों के दायरे को पूर्वव्यापी प्रभाव का विस्तार किया। नए संशोधन ने राज्य को उन मामलों में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की शक्ति प्रदान की, जहाँ ऐसी स्वतंत्रता "राज्य की सुरक्षा के हितों, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, सामाजिक व्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता, या इसका सम्बन्ध न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने से है।”
रामजी लाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार धारा 295A को संवैधानिक रूप से वैध मानते हुए कहा कि यह कथित प्रावधान केवल बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक उचित प्रतिबंध लगाता है और यह कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता सामाजिक व्यवस्था के अधीन है। हालाँकि, अधीक्षक, केंद्रीय कारागार, फतेहगढ़ बनाम राम मनोहर लोहिया के मामले में, शीर्ष न्यायालय ने रामजी लाल मामले में निर्धारित कानून के इस प्रस्ताव को स्पष्ट किया और कहा कि “बोलने और सामाजिक अव्यवस्था के बीच निकट सम्बन्ध होना चाहिए, और इनके बीच दूरगामी, दूरस्थ और काल्पनिक कड़ी नहीं होनी चाहिए।” महेंद्र सिंह धोनी बनाम येरगुंटला श्यामसुंदर मामले में, जिसमें याचिकाकर्ता के विरुद्ध दायर एक शिकायत मामले को रद्द करने की मांग की गई थी, उच्चतम न्यायालय ने कहा:
“यह कांच की तरह साफ है कि धारा 295-A में हर बात के लिए दंडित करने का प्रावधान नहीं है अन्यथा कोई भी कार्य और प्रत्येक कृत्य नागरिकों के एक वर्ग के धर्म या धार्मिक आस्थाओं का अपमान करने या अपमान करने का प्रयास करने के तुल्य समझा जा सकता है। यह केवल नागरिकों के वर्ग के धर्म या धार्मिक आस्थाओं का अपमान करने के कृत्यों या अपमान करने के उन विभिन्न प्रयासों को दंडित करता है जो नागरिकों के उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से किए जाते हैं। अनजाने में या लापरवाही से या बिना सोचे-समझे या उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के दुर्भावनापूर्ण इरादे के बिना किया गया धर्म का अपमान इस धारा के अंतर्गत नहीं आता।”
A.3 सम्बन्धित अपराध कानून प्रावधान
A.3.1 धारा 196, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973
दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973, की धारा 196(1) में निर्दिष्ट है कि कोई भी न्यायालय आईपीसी की धारा 295A के तहत किसी भी दण्डनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगा। इस धारा का उद्देश्य ओछे या गैर-जरूरी अभियोगों को रोकना है, और धारा में उल्लिखित अपराधों का अभियोजन उचित अधिकारी द्वारा उचित विचार के बाद ही किया जाना चाहिए।
धारा 196(1) किसी न्यायालय को उसके कार्यक्षेत्र में आने वाले मामले के किसी व्यक्ति की कानूनी जाँच करने का अधिकार नहीं देती है, जब तक कि केंद्र सरकार या राज्य सरकार ने इसकी पूर्व अनुमति न दी हो। इस प्रावधान के तहत एक न्यायालय का अपेक्षित मंजूरी के बिना अपराध का संज्ञान लेना अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य करने के रूप में देखा जाएगा।
आईपीसी की धारा 295A के तहत अभियोजन के लिए स्वीकृति, जैसा कि सीआरपीसी की धारा 196(1) में मांग की गई है, वरीयता कानून के अनुसार अनिवार्य है, जिसके अनुसार यह उस बात की आवश्यक मंजूरी है जो मामले की जाँच हेतु न्यायालय को अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है, और अभियोजक सीआरपीसी की धारा 465 के अनुसार अधिकार क्षेत्र के उस दोष को ठीक नहीं कर सकते, जिसके कारण मामले को अमान्य समझा जा सकता है।
A.3.2 धारा 95, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973
सीआरपीसी की धारा 95 के तहत, एक राज्य सरकार के पास किसी भी ऐसे मामले के संचलन को रोकने की शक्ति है, (i) जो कि आईपीसी की धारा 124A के अनुसार देशद्रोही है, या (ii) जो विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या घृणा की भावनाओं को बढ़ावा देता है या बढ़ावा देने की मंशा रखता है इसलिए आईपीसी की धारा 295A के अनुसार उस वर्ग के धर्म या धार्मिक आस्थाओं का अपमान करके किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। राज्य सरकारों द्वारा इस प्रावधान की आड़ में कई पुस्तकों और फिल्मों (जैसे “रानी पद्मावती,” “शिवाजी महाराज,” सलमान रश्दी द्वारा लिखित “सेटेनिक वर्सेस”, इत्यादि) पर प्रतिबंध लगाया गया है। यहाँ उद्देश्य निवारक है और दंडात्मक नहीं है।
B. धार्मिक की स्वतंत्रता की चुनौतियाँ
कई लोगों का तर्क है कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने और धार्मिक मुद्दों पर ईमानदार चर्चा को रोकने के लिए धारा 295A का उपयोग साधन के रूप में किया गया है। कोई भी आलोचना जो निष्पक्ष, पक्षपात रहित और द्वेष रहित है वह ईशनिंदा नहीं हो सकती। इसके अलावा, यदि गैरकानूनी कार्य के लिए उकसाना सही कसौटी होता, तो यह काफी स्पष्ट है कि धारा 295A की शर्तें बहुत व्यापक हैं। क्योंकि, किसी भी व्याख्या के तहत यह नहीं कहा जा सकता है कि जानबूझकर धर्म, या धार्मिक भावनाओं का अपमान करना, “उकसाने” के बराबर है।
B.1 भारत की धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध हमला
अनुच्छेद 25 के तहत, भारतीय संविधान अंतःकरण की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें नास्तिक होने का अधिकार शामिल है। यह अधिकार ऐसे विचारों के प्रसार का एक अतिरिक्त अधिकार प्रदान करता है जो “कोई ईश्वर नहीं” या नास्तिकता के सिद्धांतों का समर्थन करता है। धारा 295A की व्यापक, अस्पष्ट और मनमानी व्याख्या इस तरह के तर्कों के लिए एक बड़ा खतरा है और अनुच्छेद 25 के तहत उनके लिए उपलब्ध संवैधानिक अधिकार को कमजोर करती है।
सेंट जेवियर्स कॉलेज, मामले में, जे. खन्ना का मत था:
“अनुच्छेद 25 से 30 का उद्देश्य धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण करना था तथा उन्हें एक सुरक्षित स्थान पर रखना और उन्हें राजनीतिक विवाद के अन्यायों के दायरे से बाहर निकालना था। जब से संविधान बना है तब से लेकर आज तक, उन अधिकारों के साथ कोई छेड़छाड़ सम्भव नहीं हुआ है। ऐसा करने का कोई भी प्रयास न केवल विश्वास में दरार डालने कार्य होगा, बल्कि संवैधानिक रूप से अनुचित और न्यायालयों द्वारा ध्यान दिए जाने के लिए उत्तरदायी होगा। हालाँकि, धर्मनिरपेक्ष राज्य का संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे संविधान निर्माता इस तरह के राज्य की स्थापना चाहते थे। धर्मनिरपेक्षता न तो ईश्वर-विरोधी है, न ही ईश्वर-समर्थक; यह आस्तिक, अज्ञेय और नास्तिक से एक जैसा व्यवहार करता है। यह परमेश्वर को राज्य के मामलों से दूर करता है और यह सुनिश्चित करता है कि धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न किया जाए।”
इसके अलावा, धारा 295A नागरिकों के "वैज्ञानिक मनोवृत्ति, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना" विकसित करने के अपने मौलिक कर्तव्य को पूरा करने के निवारक के रूप में कार्य करती है।
B.2 धार्मिक सुधारों का विरोध
यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, संविधान धार्मिक प्रथाओं में सुधारवादी नीति प्रदान करता है और भारत कई अन्याय और भेदभावपूर्ण धार्मिक रिवाजों पर अंकुश लगाने में सहायक रहा है। सती प्रथा, अस्पृश्यता और ट्रिपल तलाक का उन्मूलन ऐसी कई धार्मिक प्रथाओं में से कुछ का उदाहरण हैं जो संवैधानिकता परीक्षा में विफल रही हैं। यह सब जागरूकता, सामाजिक सुधार और सक्रियतावाद का परिणाम था जिसने लोगों के लिए इस तरह के अत्याचारों और धर्म पर सवाल उठाना अथवा उससे जुड़ी प्रथाओं के विरुद्ध बोलना सम्भव बना दिया।
20 अगस्त, 2013 को एक चौंकाने वाली घटना में, एक मेडिकल डॉक्टर और तर्कवादी, नरेंद्र दाभोलकर को गोली मार दी गई थी, क्योंकि वे 2010 से महाराष्ट्र सरकार से अंधविश्वास विरोधी कानून पास करवाने का प्रयासों कर रहे थे। उनके प्रयासों का राजनीतिक दलों, विशेष रूप से शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा विरोध किया, जो स्पष्ट रूप से मानते थे कि ऐसा कानून “हिंदू संस्कृति” के विरुद्ध जाएगा।
आईपीसी की धारा 295A और सीआरपीसी की धारा 95 जैसे कानून राज्य सरकारों पर ऐसे समय में कड़ा दबाव डालते हैं जब कोई बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक प्रथा की आलोचना करता है और जब वह आलोचना, भले ही निष्पक्ष और सुधारवादी क्यों न हो, परंतु उससे सामाजिक व्यवस्था भंग हो सकती है। वर्तमान समय में, भीड़ अतिरिक्त “दंडात्मक” कार्यवाही करने में सक्षम हैं, जिससे राज्य सरकारें असुविधाजनक स्थिति में आ जाती हैं और यहाँ तक कि भीड़ उन्हें बहुसंख्यक लोगों की मांगों के सामने हार मानने के लिए भी मजबूर कर देती हैं। इसी तरह, हो सकता है कि एक धार्मिक अल्पसंख्यक समूह उन्हें प्रभावित करने वाली किसी भी धार्मिक प्रथा के विरुद्ध बोलने में सक्षम न हो।
बी.आर. अंबेडकर, जो एक समाज सुधारक थे और जिन्होंने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति की अध्यक्षता की थी, उन्होंने महद सत्याग्रह के दौरान भेदभावपूर्ण ब्राह्मणवादी प्रथाओं के विरुद्ध अपनी असहमति जताने के लिए मनुस्मृति को जला दिया था। लेकिन आईपीसी की धारा 295A की वर्तमान न्यायिक व्याख्याएँ इतनी व्यापक हैं कि वह किसी भी भेदभावपूर्ण धार्मिक प्रथाओं का अंबेडकर के समान प्रतीकात्मक रूप से विरोध करने की सम्भावना पर अंकुश लगाता है।
निष्कर्ष
यद्यपि आईपीसी की धारा 295A नागरिकों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देती है और भारत की बहुलवादी परिस्थितियों में सभी के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देती है, परंतु यह धार्मिक स्वतंत्रता और इसके साथ ही बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी खतरा है।