पीड़ित मुआवज़ा और धार्मिक स्वतंत्रता
यह लेख भारत में सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के लिए राज्य पुनर्वास पैकेजों के नतीजे की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। यह ऐसे प्रमुख निर्णयों की पड़ताल करता है जो इस तरह के मुआवज़े के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करते हैं।
- परिचय
- सांप्रदायिक हिंसा विधेयक
- सांप्रदायिक दंगों में पीड़ितों को मुआवज़ा दिए जाने पर न्यायिक प्रतिक्रिया
- निष्कर्ष और सुझाव
परिचय
भगत सिंह ने लिखा, “यदि धर्म को राजनीति से अलग रखा जाए तो हम सब एक साथ राजनीति में आ सकते हैं चाहे हम अलग-अलग धर्मों से सम्बन्ध ही क्यों न रखते हों।”
भगत सिंह का यह लेख, जो जून 1927 में “कीर्ति” नामक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, भारत में सांप्रदायिक दंगों की समस्या को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस लेख के प्रकाशित होने के 93 साल बाद भी, भारत उसी समस्या से जूझ रहा है। भगत सिंह भारत में सांप्रदायिक दंगों के तीन मूल कारणों की पहचान करता है, जैसे कि सांप्रदायिक नेता, भड़काऊ समाचार पत्र और लोगों की खराब आर्थिक स्थिति।
वह इस समस्या के समाधान को “वर्ग-चेतना” के रूप में उजागर करता है। वह कलकत्ता मिल के मजदूरों का उदाहरण देता है, जिन्होंने कलकत्ता में हुए सांप्रदायिक दंगों में भाग लेने का विकल्प नहीं चुना, बल्कि यह समझा कि उनके वर्ग के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद क्या है। उनके लिए इन मिलों में शांति बनाए रखना और अपने धार्मिक मतभेदों के बावजूद साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण था ताकि वे अपने पूंजीवादी उपनिवेशवादियों से स्वतंत्र हो सकें।
हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत में सांप्रदायिकता के खतरों को पहले से ही भांप लिया था और परिणामस्वरूप, संविधान सभा की बहस में “धर्म” व्यापक चर्चा का विषय था। सभा के लगभग सभी सदस्य धर्म को राज्य से अलग करने की जरूरत के प्रति सहमत थे ताकि लोकतंत्र फल-फूल सके। इसलिए कई लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने प्रोफेसर के. टी. शाह के संविधान की प्रस्तावना में संशोधन द्वारा “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़ने के सुझाव को खारिज क्यों कर दिया था। जवाब उनके प्रत्युत्तर में है: “यह संशोधन पूरी तरह से व्यर्थ है, क्योंकि ये सामाजिक सिद्धांत हमारे संविधान में पहले से ही अंगभूत हैं, इसलिए यह संशोधन स्वीकार करना व्यर्थ है।” तथापि, जब 1976 में भारत के संविधान में 42वां संशोधन पारित किया गया तो “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को औपचारिक रूप से प्रस्तावना में जोड़ दिया गया।
इसलिए, भले ही सांप्रदायिक हिंसा (पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक कभी पारित नहीं हुआ और हमारे पास अभी भी इस मुद्दे पर समर्पित अधिनियम नहीं है, संविधान में ऐसे पर्याप्त सुरक्षा उपाय मौजूद हैं जो भारत के नागरिकों को सांप्रदायिक हिंसा के परिणामों से बचाते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ये प्रमुख मूल्य समाविष्ट हैं जिन्हें संविधान के सभी अनुच्छेदों में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। परंतु यह भी जरूरी था कि इनकी झलक अनुवर्ती विधानों भी दिखाई दे ताकि ये मूल्य समय के साथ नष्ट न हों। भारत के लोगों को जिन मूल्यों की गारंटी दी गई है उनमें से एक है न्याय। इसे आगे चलकर न्याय के तीन रूपों अर्थात सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक रूप में विस्तार से समझाया गया है।
सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए पुनर्वास और मुआवज़ा, न्याय के उन तीनों रूपों का उदाहरण है जो संविधान की प्रस्तावना में प्रतिस्थापित हैं, क्योंकि यह प्रकृति में पुनर्स्थापनात्मक, प्रतिपूरक और न्यायसंगत है। संविधान के भाग तीन “मौलिक अधिकार” में, ये मूल्य लागू करने योग्य मानवाधिकार बन जाते हैं जिससे राज्य – कार्यपालिका, विधानमण्डल और न्यायपालिका– का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह भारत के सभी व्यक्तियों के जीवन और आजीविका की समान रूप से और किसी भी तरीके के भेदभाव के बिना रक्षा करे। इसलिए, निःसंदेह भारत में रहने वाले लोगों की संपत्ति की रक्षा करना राज्य का संवैधानिक कर्तव्य है।
और इन अधिकारों के साथ कर्तव्य आते हैं। संविधान कहता है कि यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह भारत की एकता को बनाए रखे और उसकी रक्षा करे और धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय और अनुभागीय विविधताओं के आगे जाकर सौहार्द और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा दे
सांप्रदायिक हिंसा विधेयक
भारत जैसे लोकतंत्र में जहाँ विधानमण्डल निर्वाचित नेताओं से मिलकर बनता है, यह पता लगाना मुश्किल होता है कि क्या ये विधायक लोगों के हितों के प्रति ईमानदार हैं या केवल चुनावी दृष्टिकोण के तौर पर लोकप्रियता चाहते हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि यद्यपि सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा में कई बार - 2005, 2011 और अंत में 2013 में पेश किया गया था – परंतु इसे कभी सफलता हासिल नहीं हुई और आखिरकार 2014 में राज्यसभा द्वारा इसे वापस ले लिया गया।
पहले विधेयक का नाम सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005 था। इसे उसी वर्ष, 2002 के बर्बरतापूर्ण गोधरा दंगों के पीड़ितों का पुनर्वास चाहने वाली कई मानवाधिकार एजेंसियों और वकीलों के अनुरोध पर संसद में पेश किया गया था। हालाँकि, इसका विरोध करने वालों ने कई आधारों पर इसकी आलोचना करते हुए कहा कि इसके अधिकांश प्रावधान पहले से ही मौजूद कानूनों में मौजूद थे और यह केवल कार्यपालिका द्वारा प्रभावी कार्यान्वयन का मामला है। उन्होंने यह भी कहा कि इसमें राज्य सरकारों के सांप्रदायिक घटनाओं पर अंकुश लगाने में विफल रहने पर केंद्र सरकार को कार्रवाई करने की व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। तर्क दिया गया कि यह संघवाद के संवैधानिक सिद्धांतों का अतिक्रमण था। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुआवज़े के खिलाफ तर्क यह था कि मुआवज़ा “कब”, “कितना” और “किसके द्वारा” दिया जाएगा, जैसे कार्यान्वयन के महत्वपूर्ण पहलुओं का उल्लेख करने वाले कोई दिशानिर्देश नहीं थे।
इसलिए 2011 में, विधेयक में मामूली संशोधन किया गया और नए शीर्षक के साथ पेश किया– सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा (न्याय और मुआवज़े तक पहुँच) रोकथाम विधेयक, 2011. लेकिन एक बार फिर, इसे न केवल विपक्ष द्वारा, बल्कि सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा भी व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा, क्योंकि इसमें सांप्रदायिक हिंसा पर अंकुश लगाने में विफल रहने पर पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का सुझाव दिया गया था। इसमें वरिष्ठ अधिकारियों पर उनके अधीनस्थ अधिकारियों के अपने कर्तव्य में विफल होने की अवस्था में विकराल दायित्व थोपे गए थे। विधेयक में “सांप्रदायिक हिंसा” शब्द की परिभाषा की भी आलोचना की गई क्योंकि इसने “सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों” के दायरे को केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित कर दिया था, और बहुसंख्यक समाज को बाहर छोड़ दिया था।
इसके बाद, उत्तर प्रदेश में 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगों ने एक बार फिर संसद को विधेयक वापस लाने के लिए उकसाया लेकिन अगले ही साल राज्य सभा ने इसे फिर से नकार दिया।
सांप्रदायिक दंगों में पीड़ितों को मुआवज़ा दिए जाने पर न्यायिक प्रतिक्रिया
गोधरा दंगे (2002)
59 हिंदूओं को ले जा रही एक ट्रेन के जलने के बाद, गुजरात राज्य में दंगे भड़क उठे और फरवरी से मई 2002 तक होते रहे। इसके बाद हुई हिंसा ने हजारों मुसलमानों की जान ले ली और अनेकों की संपत्ति और आजीविका का नुकसान हुआ। उन दंगों के दौरान बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और मुस्लिम महिलाओं के जननांगों को विकृत करने जैसे जघन्य अपराध किए गए।
इसके बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें कहा गया था कि गुजरात राज्य और कुछ हिंदू संगठन गोधरा दंगों के लिए उत्तरदायी हैं। पीड़ितों को मुआवज़े के रूप में राहत देने और दंगा पीड़ितों के पुनर्वास से पहले जिन राहत शिविरों को बंद कर दिया गया था, उन्हें फिर से खोलने के लिए भी अनुरोध किया गया था। दुर्भाग्य से 7 अगस्त 2004 को, न्यायालय ने मुआवज़े से सम्बन्धित याचिकाओं का निपटारा किया और याचिकाकर्ताओं को गुजरात उच्च न्यायालय का रुख करने का निर्देश दिया, जहाँ इसी तरह की याचिकाएं लंबित थीं।
इसके बाद, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने, गोधरा में ट्रेन जलने की घटना में मारे गए 59 हिंदूओं के परिवारों को 2-2 लाख रुपये का मुआवज़ा देने की घोषणा की। लेकिन उन लोगों के परिवारों को केवल 1-1 लाख रुपये दिए गए, जो उसके बाद हुए जवाबी सांप्रदायिक दंगों में मारे गए थे।
हालाँकि आखिरकार, केंद्र और राज्य सरकारें एक साथ आईं और सभी शोकसंतप्त परिवारों को 1.5 लाख रुपये का संचयी मुआवज़ा दिया। लेकिन यह भी मानवाधिकार की वकालत करने वालों द्वारा हिंसा के पीड़ितों की “सहायता” करने में हुए ज़बरदस्त भेदभाव का मुद्दा उठाने के बाद ही हो पाया।
दंगों के दौरान अपनी संपत्ति गंवाने वालों के लिए 50,000 रुपये के मुआवज़े की घोषणा की गई। लेकिन गैर-सरकारी संगठनों की जांच से पता चलता है कि कम से कम 25 प्रतिशत पीड़ितों को कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया। और 10 प्रतिशत से भी कम को 30,000 रुपये से अधिक का मुआवज़ा मिला है।
कंधमाल दंगे (2008)
ओडिशा राज्य (तब उड़ीसा कहा जाता था) में पर्याप्त पुलिस बल की तैनाती और राज्य में रहने वाले कई निर्दोष ईसाइयों के जीवन, आजीविका और संपत्ति की रक्षा करने में विफलता को उजागर करते हुए लोकहित में कई नागरिक प्रादेश याचिकाएं दायर की गईं। 23 अगस्त 2008 को माओवादियों द्वारा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और कुछ अन्य लोगों की हत्या करने के बाद राज्य में दंगे भड़क उठे थे। इन सभी प्रदेश याचिकाओं में निम्नलिखित राहत की माँग की गई थी:
सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए शरणार्थी शिविरों की स्थापना;
इन शिविरों में पर्याप्त सुविधाएं प्रदान करना;
पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करना;
भविष्य में सांप्रदायिक हिंसा को रोकना;
इन दंगों के दौरान होने वाले अपराधों की जांच के लिए स्वतंत्र आयोग गठित करना; तथा इन दंगों के अभियुक्तों के मुकद्दमों की शीघ्र जाँच के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करना।
इन याचिकाओं की सुनवाई के दौरान, ओडिशा राज्य ने 1 मार्च 2016 को एक हलफनामा दायर कर पीड़ितों के पक्ष में सरकार द्वारा किए गए राहत और पुनर्वास उपायों का उल्लेख किया। इसमें कहा गया था कि:
पीड़ितों को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए आठ अलग-अलग स्थानों में राहत शिविर लगाए गए। जिन लोगों को शिविरों में रखा गया था, उन्हें सुरक्षित रूप से उनके गांवों में वापस भेज दिया गया और शिविर 25 अगस्त 2009 को बंद कर दिए गए थे।
दंगों के दौरान मारे गए 39 पीड़ितों के परिजनों को मुख्यमंत्री राहत कोष (सीएमआरएफ) से 2-2 लाख रुपये का अनुग्रही मुआवज़ा दिया गया था। केंद्र सरकार ने दंगों में मारे गए 39 लोगों के परिवारों को अतिरिक्त 3 लाख रुपये का भुगतान किया।
सरकार ने दावा किया कि दंगों के दौरान कुल 4,822 घर क्षतिग्रस्त हुए थे, जिनमें से 1,506 घर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए थे और 3,316 घर आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए थे। राज्य सरकार ने प्रत्येक पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त घर के लिए 50,000 रुपये और प्रत्येक आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त घर के लिए 20,000 रुपये देने का दावा किया। इसके अलावा, केंद्र सरकार ने प्रत्येक पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त घर के लिए 20,000 रुपये और आंशिक रूप से प्रत्येक क्षतिग्रस्त घर के लिए 10,000 रुपये देने का दावा किया।
कथित तौर पर दंगों के दौरान पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हुए सात चर्चों को 2-2 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया गया और आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त पाँच चर्चों को 1-1 लाख रुपये का भुगतान किया गया। राज्य सरकार द्वारा उन लोगों को 19,45,000 रुपये का मुआवज़ा भी दिया गया, जिनकी दुकानें दंगों के दौरान क्षतिग्रस्त हो गई थीं।
पीड़ितों द्वारा सहे गए नुकसान की सीमा पर विचार करने के बाद, न्यायालय ने आदेश दिया कि पीड़ितों को अतिरिक्त मुआवज़ा दिया जाए। आदेश में लिखा था:
दंगों के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों को राज्य द्वारा 3-3 लाख रुपये का अतिरिक्त मुआवज़ा दिया जाना चाहिए;
राज्य सरकार को उन लोगों को 30,000 रुपये का मुआवज़ा देना चाहिए, जिन्हें गंभीर चोटों का सामना करना पड़ा और दंगों के दौरान साधारण रूप से घायल हुए लोगों को 10,000 रुपये देने चाहिए; तथा
केंद्र और राज्य को संचयी रूप से उन लोगों को 70,000 रुपये का अतिरिक्त मुआवज़ा देना चाहिए जो पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके घरों के मालिक थे और आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त घरों के मालिकों को 30,000 रुपये देने चाहिए।
मुजफ्फरनगर दंगे (2013)
7 सितंबर 2013 को, मुजफ्फरनगर उ. प्र. में, जाट समुदाय द्वारा एक महापंचायत का आयोजन किया गया, जिसमें यूपी, हरियाणा और दिल्ली के 1.5 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। वे 27 अगस्त 2013 को हुई एक घटना का विरोध कर रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप तीन मुस्लिम और तीन जाट मारे गए। उन्माद भड़काने के लिए इस घटना को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया और इसके परिणामस्वरूप, महापंचायत के समापन के तुरंत बाद, दंगों ने कई लोगों की जान ले ली। बलात्कार जैसे जघन्य अपराध हुए और हजारों लोग, विशेष रूप से मुसलमान, घायल हो गए और उपद्रवियों द्वारा पैदा किए गए भय और चिंता के कारण अपने-अपने गांवों से विस्थापित हो गए।
मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों के लिए मुआवज़े और पुनर्वास की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कई जनहित याचिकाएँ दायर की गईं। उन याचिकाओं में इन दंगों के दौरान हुए अपराधों की जाँच के लिए एक विशेष जांच दल गठित करने की मांग भी की गई थी।
इस मामले में सुनवाई के दौरान, उत्तर प्रदेश राज्य ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कई निर्देशों के आधार पर राहत के उपायों का विवरण देते हुए 11 अनुपालन रिपोर्ट दायर कीं। इनमें दावा किया गया था:
आश्रय गृह और राहत शिविरों की स्थापना की गई;
इन राहत शिविरों में पीड़ितों को भोजन, कपड़े और दवाइयाँ उपलब्ध कराई गईं;
उन लोगों को मुआवज़ा दिया गया, जिन्होंने उन राहत शिविरों में रहने के दौरान अपने बच्चों को कठोर मौसमी परिस्थितियों के कारण खो दिया था; तथा
दंगों के पीड़ितों को मुआवज़ा दिया गया, इत्यादि।
अनुपालन रिपोर्ट में कहा गया था कि:
दो सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों अर्थात मुजफ्फरनगर और शामली में, विभिन्न स्थानों पर लगभग 58 राहत शिविर स्थापित किए गए;
दिसंबर 2013 में अपने गांवों में लौटने वाले परिवारों को पुनःस्थापन और पुनर्वास में सुविधा प्रदान करने हेतु 15 दिनों तक राशन दिया गया;
शिविरों को स्थापित करने और पर्याप्त सुविधाओं के साथ चलाने पर तीन महीनों में कुल 3 करोड़ 27 लाख रुपये खर्च किए गए; तथा
इन राहत शिविरों में रहने वाले दंगों के पीड़ितों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने हेतु लगभग 21 लाख रुपये खर्च किए गए थे।
शिविर में उचित सफाई व्यवस्था और सुरक्षित पेय जल सुनिश्चित करने के लिए, राज्य सरकार ने कथित तौर पर:
प्रत्येक शिविर में पाँच सफाईकर्मी तैनात किये;
मोबाइल शौचालय उपलब्ध कराए;
कीटनाशकों का छिड़काव किया और समय-समय पर फॉगिंग कराई; तथा
शिविरों के पास स्थायी ट्यूबवेल स्थापित किए।
इसके अलावा, उत्तर प्रदेश सरकार ने मृतकों के परिजनों के लिए 10 लाख रुपये, गंभीर रूप से घायल लोगों को 50,000 रुपये और साधारण रूप से घायल व्यक्तियों को 20,000 रुपये का मुआवज़ा देने की मंजूरी दे दी। और केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष से मृतक के परिजनों को 2 लाख रुपये की दर से और गंभीर चोटों का सामना करने वालों को 50,000 रुपये की अनुग्रही राशि देने की मंजूरी दे दी।
राज्य सरकार ने पीड़ितों के परिवारों के पुनर्वास के प्रयास में, मृतक के परिवार के एक सदस्य पुरुष या महिला को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार देने का भी फैसला किया।
चल और अचल संपत्ति के नुकसान के सम्बन्ध में, अनुपालन रिपोर्ट में बताया गया कि दंगों के दौरान क्षतिग्रस्त हुई 682 संपत्तियों में से 671 के मालिकों द्वारा किए गए दावों की क्षतिपूर्ति में 2 करोड़ 98 लाख रुपये खर्च किए गए थे।
मुआवज़े पर चर्चा करने के बाद, न्यायालय ने महिलाओं को बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों से बचाने में राज्य सरकार की अक्षमता के विषय में खेद व्यक्त किया।
“कोई मुआवज़ा पर्याप्त नहीं हो सकता है और न ही यह पीड़ितों के लिए किसी तरह की राहत हो सकता है लेकिन क्योंकि राज्य मौलिक अधिकारों के इस तरह के गंभीर उल्लंघन से बचाने में विफल रहा है, इसलिए राज्य मुआवज़ा प्रदान करने के लिए कर्तव्य-बद्ध है, यह मुआवज़ा पीड़ितों के पुनर्वास में सहायता कर सकता है। जो अपमान हुआ है या जो प्रतिष्ठा खत्म हो चुकी है उसे वापस तो नहीं लाया जा सकता, लेकिन आर्थिक क्षतिपूर्ति कम से कम थोड़ी सांत्वना जरूर प्रदान करेगी।”
न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि चार सप्ताहों की अवधि के भीतर बलात्कार पीड़ितों में से प्रत्येक को 5-5 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाए इसके साथ ही भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 A या भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 A या 376 D के अंतर्गत पीड़ित जिन अतिरिक्त लाभों या दावों का हकदार है प्रदान किये जाएं।
न्यायालय ने राज्य सरकार को अतिरिक्त मुआवज़े के रूप में 10 लाख रुपये के साथ अतिरिक्त 3 लाख रुपए देने और केंद्र को मृतक के निकटतम परिजन को प्रधानमंत्री राहत कोष से 2 लाख रुपये देने का निर्देश दिया।
न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह उन पीड़ितों की पहचान करे जिन्हें दंगों के दौरान साधारण या गंभीर चोटें लगी थीं और उन्हें मुआवज़ा दे। न्यायालय ने राज्य सरकार से हिंसा के दौरान अपनी फसल, पशु, ट्रैक्टर और अन्य उपकरणों को खोने वाले किसानों को पर्याप्त मुआवज़ा देने के लिए भी कहा।
यूपी सरकार को उन परिवारों को मुआवज़ा देने का भी निर्देश दिया गया, जिन्हें चल और अचल संपत्ति के कारण आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था।
जिला प्रशासन को निर्देशित किया गया कि दंगों के कारण भय या चिंता के फलस्वरूप दूसरे गांव में बसने की इच्छा रखने वाले विस्थापित परिवारों को 5-5 लाख रुपये का भुगतान किया जाए।
राज्य में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में भविष्य में कार्यवाही की दिशा के सम्बन्ध में, न्यायालय ने कहा:
“अंततः, हम यह दोहराते हैं कि यह राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह राज्य और केंद्र दोनों की खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर राज्य के किसी भी हिस्से में सांप्रदायिक हिंसा की पुनरावृत्ति को रोके। यह स्पष्ट किया जाता है कि यदि कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार अधिकारी, यदि लापरवाह पाए जाते हैं, तो उन्हें उनके पद के बावजूद कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि जैसा ऊपर बताया गया है, राहत न सिर्फ सभी जरूरतमन्द परिवारों को, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, बिना पक्षपात के प्रदान की जानी चाहिए बल्कि यह केवल वास्तविक रूप से प्रभावित परिवारों को भी प्रदान की जानी चाहिए।
सिख-विरोधी दंगे (1984)
भजन कौर बनाम उप-राज्यपाल के माध्यम से दिल्ली प्रशासन 1996 एससीसी ऑनलाइन DEL 484 (भजन कौर का मामला) में, याचिकाकर्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष यह प्रार्थना करते हुए नागरिक रिट याचिका दायर की कि दिल्ली में सिख विरोधी दंगों में अपने पति को खोने के दो साल बाद, 1986 में दिल्ली प्रशासन द्वारा उन्हें दिए गए मुआवज़े को बढ़ाया जाए।
एफआईआर नं 355/1984 के अनुसार, भजन कौर के पति, श्री नारायण सिंह मुंबई-फिरोजपुर जनता एक्स्प्रेस ट्रेन के उन 26 यात्रियों में से एक थे जिन्हें 1 नवंबर 1984 को ट्रेन के तुगलकाबाद स्टेशन पर रुकने के बाद 300 से 350 ग्रामीणों की भीड़ ने ट्रेन से बाहर खींचकर मार डाला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद सारे देश में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए, जिनका प्रमुख-केंद्र दिल्ली थी।
रिट याचिका में, भजन कौर ने मांग की कि उनके नुकसान को देखते हुए उनका मुआवज़ा 20,000 रुपए से बढ़ाकर 2 लाख रुपए कर दिया जाए।
दोनों पक्षों को सुनने और जीवन के नुकसान के लिए अतीत में भुगतान किए गए मुआवज़े को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने कहा कि पीड़ितों के परिवार के सदस्यों, विशेष रूप से विधवाओं को 2 लाख रुपये के साथ ही अक्तूबर 1984 से लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले की तिथि तक ब्याज सहित बढ़ा हुआ मुआवज़ा दिया जाना चाहिए, जो कुल मिलाकर 1.5 लाख रुपए हुए। इसलिए, राज्य को एक महीने के भीतर भजन कौर को 3,30,000 रुपये का बढ़ा हुआ मुआवज़ा देना पड़ा।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे (2020)
2019 के अंत में राष्ट्रीय राजधानी में हुए सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान और बाद में राजनेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषणों के परिणामस्वरूप उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़क उठे। दंगों में लगभग 53 लोग मारे गए और 748 घायल हो गए। इससे संपत्ति और आजीविका का भी गम्भीर नुकसान हुआ।
दिल्ली पुलिस द्वारा दंगों के एक मामले में दायर चार्जशीट के आंकड़ों के अनुसार, सरकार ने अब तक 1,661 पीड़ितों के दावों का निपटारा किया है और केवल 185 दावे अब भी लंबित हैं। अंत तक, कथित तौर पर दिल्ली सरकार द्वारा कुल 21 करोड़ रुपये के मुआवज़े का आवंटन किया गया है।
दंगों के बाद, दिल्ली सरकार ने मृत्यु के मामलों में 10 लाख रुपये, स्थायी अपंगता के लिए 5 लाख रुपये, गंभीर चोटों के लिए 2 लाख रुपये और मामूली चोटों के लिए 20,000 रुपये के मुआवज़े का वादा किया।
संपत्ति के नुकसान के सम्बन्ध में, राज्य सरकार ने आवासीय घरों को पूर्ण क्षति के लिए 5 लाख रुपये और बिना बीमा वाली वाणिज्यिक इकाइयों के लिए 2.5 लाख रुपये और पशु हानि के लिए 5,000 रुपये के मुआवज़े का प्रस्ताव दिया।
हालाँकि, कई समाचार रिपोर्टों का दावा है कि पीड़ितों को वादा किये गए मुआवज़े का भुगतान नहीं किया गया।
भारत में सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के लिए मुआवज़ा योजना
यूनिवर्सल डेक्लरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स और इंटरनेशनल कवनेन्ट ऑन सिविल एण्ड पॉलिटिकल राइट्स कास्ट्स जैसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्व हैं। इसमें अन्य बातों के साथ-साथ, जीवन का जन्मसिद्ध अधिकार, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सब लोगों की स्वतंत्रता और सुरक्षा करना और प्रभावी उपाय प्रदान करने का राज्य सरकार का कर्तव्य शामिल हैं। लेकिन जैसा कि हमने देखा है, न तो ऐसा प्रभावी कानून है जो सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के लिए मुआवज़ा या पुनर्वास प्रदान करता हो न ही ऐसी प्रभावी मुआवज़ा योजना है जो पीड़ितों और उत्तरजीवियों को निश्चित और उचित मुआवज़ा प्रदान करती हो।
दूसरी ओर, उपरोक्त मामलों में पीड़ितों को दिया गया मुआवज़ा, यदि दिया गया हो तो उठाए गए नुकसान के अनुपात में काफी कम प्रतीत होता है। एक दंगे से दूसरे दंगे और एक पीड़ित से दूसरे पीड़ित के बीच में कई असमानताएं भी होती हैं। यह स्पष्ट है कि अतीत में सांप्रदायिक दंगे के प्रत्येक मामले में प्रस्तावित मुआवज़ा भावनाओं पर आधारित था और राज्य-राज्य के आधार पर इसमें अंतर था और यहाँ तक कि यह दंगे में शामिल धार्मिक समुदाय या घायल लोगों की संख्या पर निर्भर था। विशेषतः दंगों के समय उन राज्यों और केंद्र में सत्ता बैठे राजनीतिक दलों के आधार पर राज्य-राज्य के बीच मुआवज़े में अंतर होता था।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई बार मुआवज़ा एक पीड़ित से दूसरे पीड़ित व्यक्ति तक इस मायने में भी भिन्न था क्योंकि संपन्न या प्रभावशाली पीड़ितों को आमतौर पर समाज के निचले तबके के लोगों की तुलना में अधिक मुआवज़ा मिलता है। यह या तो शिक्षा की कमी के कारण था या उनके लिए उपलब्ध कानूनी सहारे के संसाधनों का ज्ञान न होने के कारण था।
हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि गृह मंत्रालय का स्वायत्त किन्तु अप्रत्यक्ष संगठन नेशनल फाउंडेशन फॉर कम्युनल हारमनी, “सहायता परियोजना” नामक योजना उपलब्ध करवाता है जो "विभिन्न सांप्रदायिक, जातिगत, नस्लीय या आतंकवादी हिंसा में अनाथ या निराश्रित हो चुके बच्चों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का प्रयास करती है।” बच्चों और 25 वर्ष की आयु तक के वयस्कों को समान रूप से, छात्रवृतियों और अन्य चीजों के रूप में आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 A के सम्बन्ध में सम्मानार्थ उल्लेख भी किया गया था जिसे वर्ष 2009 में निर्दोष पीड़ितों, विशेषतः ऐसे महिलाएं और बच्चों को मुआवज़ा प्रदान करने के लिए जोड़ा गया था, जो बलात्कार जैसे अपराधों के पीड़ित हैं। मुहम्मद हारून और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (मुहम्मद हारून का मामला) में, सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि महिलाएं और बच्चे सांप्रदायिक दंगों के दौरान ऐसे अपराधों के शिकार होते हैं और धारा 357 A के तहत मुआवज़े का दावा करने के योग्य हैं।
निष्कर्ष और सुझाव
उपरोक्त चर्चा के प्रकाश में, मैं निम्नलिखित सुझाव देना चाहूँगा:
उच्च साक्षरता दर और जागरूकता उत्पन्न करना: अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना सांप्रदायिक दंगों से बचने का सबसे पहला सर्वोच्च समाधान है। यह समय-समय पर राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तावित योजनाओं के तहत पुलिस शिकायतें दर्ज करने और मुआवज़े का दावा करने के लिए सभी को आत्मनिर्भर बनाने का सबसे अच्छा साधन है।
सांप्रदायिक दंगा (पीड़ितों का मुआवज़ा और पुनर्वास) विधेयक बनाना: यह समय की मांग है कि विधायक एक सांप्रदायिक हिंसा विधेयक बनाएं जिसमें जीवन, आजीविका और संपत्ति के नुकसान के उद्देश्य मानदंडों के आधार पर सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के लिए राहत उपाय, पुनर्वास और मुआवज़े का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया हो। इसके अलावा, उक्त अधिनियम के तहत इन मामलों में पीड़ितों द्वारा किये मुआवज़े के दावों की स्वतंत्र जाँच करने हेतु वैधानिक निकायों की स्थापना की जा सके और फलस्वरूप मामलों का शीघ्रता तथा कुशल तरीके से निपटारा किया जा सके।
सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देना: नाटक, रंगमंच और “सांप्रदायिक सद्भावना दिवस” या “सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस” मनाने जैसे राष्ट्र-निर्माण करने वाले कार्यकलापों जैसे प्रभावी तरीकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि इससे विभिन्न समुदायों के सदस्यों के बीच संवाद और स्वस्थ चिंतन को बढ़ावा मिलता है।
जिम्मेदारी के बोझ को बांटना: राज्य को अपनी जिम्मेदारी के बोझ को बांटना चाहिए और पीड़ितों द्वारा किए गए मुआवज़े के दावे की निष्पक्ष जांच के लिए निजी स्वैच्छिक संगठनों के साथ हाथ मिलाना चाहिए। यह उन पीड़ितों हेतु निधियों का कुशलतापूर्वक वितरण करने में भी सहायक सिद्ध होगा। इसके अलावा, इससे स्वैच्छिक संगठनों के सहयोग से राहत शिविरों की स्थापना और संचालन तथा पीड़ितों के समुचित पुनर्वास जैसे कार्य किये जा सकते हैं, ऐसे संगठन कई बार बेहतर देखभाल करने वाले सिद्ध होते हैं।
जिम्मेदार राज्य कार्यकर्ता: पुलिस और जिला कलेक्टरों जैसी कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भी ईमानदारी के साथ काम करना चाहिए और कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। जैसा कि भजन कौर मामले में देखा गया है:
“यह राज्य का कर्तव्य और जिम्मेदारी है कि वह भीड़ की हिंसा से किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा और बचाव करे। राज्य यह कहने के लिए स्वतंत्र नहीं है कि जो अपराध व्यक्तियों द्वारा निजी रूप से किये जाते हैं उनके लिए उसे जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। दंगे अक्सर प्रशासन की कानून और व्यवस्था लागू करने में कमजोरी, ढिलाई और उदासीनता के कारण होते हैं। यदि अधिकारी समय पर कार्य करें और प्रभावी ढंग और कुशलता से कार्य करें, तो दंगों को निश्चित रूप से रोका जा सकता है। उत्पात मचाने वालों के पास संदेश जाना चाहिए कि प्रशासन का मतलब कर्तव्य है और उनके नापाक इरादों का सख्ती से मुकाबला किया जाएगा।”
रोकथाम इलाज से बेहतर है: जैसा कि न्यायालय ने मुहम्मद हारून के मामले में उल्लेख किया, राज्य की खुफिया एजेंसियों को दूरदर्शिता के साथ काम करना चाहिए और राज्य या जिला प्रशासन को सांप्रदायिक तनाव के बारे में सतर्क करना चाहिए ताकि सम्बन्धित अधिकारी सेना की तैनाती या हिंसा को भड़काने की संभावना वाले कार्यक्रमों का संचालन करने की अनुमति देने से मना करने जैसी तत्काल कार्यवाही कर सकें।
महात्मा गांधी के एक उद्धरण के साथ समाप्त करता हूँ:
“सुनहरे मार्ग का अर्थ है संसार के साथ मित्रता करना और सम्पूर्ण मानव परिवार को एक ही परिवार का सदस्य समझना। जो व्यक्ति अपने परिवार और दूसरे परिवार के बीच में भेद करता है वह अपने ही परिवार को गलत शिक्षा देता है और मनमुटाव तथा अधर्म का मार्ग खोलता है।”