धर्मांतरण के विषय पर भारतीय संविधान और अन्य कानूनों की राय

भारत में पिछले दो वर्षों में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों में धर्मांतरण के मुद्दे ने प्रमुख स्थान ले लिया है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की राज्य सरकारों ने “लव जिहाद” के मुद्दे को बड़े पैमाने पर एक समस्या के रूप में प्रस्तुत किया है और जिसके तहत संदेश यह है कि हिंदू महिलाओं की रक्षा के लिए तत्काल समाधान की आवश्यकता है। हालाँकि, यह सर्वत्र ज्ञात है कि “लव जिहाद” ऐसे हिंदू-राष्ट्रवादी समूहों[i] का एक षड्यन्त्र है जिनके मन में अंतर-धार्मिक विवाह और सम्बन्धों के प्रति द्वेष की भावना है।

इस पत्र के लिखे जाने तक, दो-राज्य सरकारें कथित जबरन धर्मांतरण[ii] के सबूत या डेटा पेश करने में असफल रही हैं। इस बात के बावजूद भी उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण अध्यादेश 2020 और मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अध्यादेश 2020 को अधिनियमित और लागू कर दिया गया। और बाद में दोनों अध्यादेश अपने-अपने राज्य की विधानसभाओं द्वारा पारित कानून बन गए।

गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक 2021 को 14 जून, 2021 के दिन पारित किया गया था, जिसके माध्यम  से गैरकानूनी धर्मांतरण के दण्ड और धर्मांतरण के नियमों को और भी सख्त बना दिया गया।

सवाल यह है कि क्या ये राज्य कानून, जिनका अस्तित्व वर्तमान में छह अन्य राज्यों में है, वास्तव में धर्मांतरण को नियंत्रित करते हैं? और क्या कोई ऐसा राष्ट्रीय कानून है जो भारत में धर्मांतरण को नियंत्रित करता है?

भारत में कानून और धर्मांतरण

अधिकांश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, “धर्मांतरण विरोधी” कानूनों के उद्देश्य और सिद्धांत बताते हैं कि ये अधिनियम कानून, व्यवस्था और सार्वजनिक शांति बनाए रखने के लिए हैं, क्योंकि ऐसे गैरकानूनी धर्मांतरणों को रोकने की आवश्यकता है जो स्वैच्छिक नहीं हैं, अर्थात किसी व्यक्ति का जबरन या धोखे से या प्रलोभन देकर किया गया धर्मांतरण। अधिनियमों में यह आदेश भी दिया गया है कि धर्मांतरण की इच्छा रखने वाला व्यक्ति और धर्मांतरण की संस्कार विधि करने वाला व्यक्ति, अर्थात धार्मिक पुरोहित, अपने सम्बन्धित जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य अधिकृत अधिकारी को धर्मांतरण के सम्बन्ध में सूचना प्रदान करेगा। अतः धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम यह सुनिश्चित करने के लिए धर्मांतरण को नियंत्रित करता है ताकि ऐसे धर्मांतरण स्वेच्छा से किए जा सकें।

हालाँकि, इन नियमों के धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होने के कारण भारत और विदेशों में मानवाधिकारों और अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा इनकी कठोर शब्दों में आलोचना की गई है, जिनमें संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग[iii] भी शामिल है।

उत्तर प्रदेश के कानून को विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह[iv] और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश  जस्टिस मदन लोकुर[v] ने असंवैधानिक करार दिया है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और झारखंड के राज्य कानूनों को उनके संबंधित उच्च न्यायालयों के समक्ष चुनौती दी जा रही थी और कुछ याचिकाएं इस रिपोर्ट के लेखन के समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित थीं। याचिकाओं में मुख्य रूप से कानूनों को चुनौती देते हुए कहा गया था कि कानून अपने उद्देश्यों और सिद्धांतों के विपरीत हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उत्पीड़न के साधन बन गए हैं। यह मसीही पादरियों और व्यक्तियों को कानून के तहत कथित रूप से दूसरों को जबरन या प्रलोभन[vi] देकर धर्मांतरण करने के आरोपी बनाए जाने के मामलों में स्पष्ट रूप से देखा गया है। इसमें कई मुसलमानों को भी निशाना बनाया गया है।[vii][viii]

याचिकाओं के रास्ते का रोड़ा है, रेव स्टैनिस्लॉस बनाम मध्य प्रदेश राज्य में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला,[ix] जिसे 17 जनवरी, 1977 को पाँच न्यायाधीशों द्वारा पारित किया गया था, जिसने 1968 के मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम  और उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 1968 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। हालाँकि, विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में दायर नवीनतम याचिकाएँ भी इस बारे में दायर की गई हैं कि ये कानून निजता को कैसे प्रभावित करते हैं, जिसे सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों ने के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ[x]मामले में मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा है। निजता धार्मिक स्वतंत्रता का केंद्र और कुंजी है।

दूसरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए, कि क्या भारत में राष्ट्रीय स्तर पर धर्म और धर्मांतरणों को नियंत्रित करने वाला कोई कानून है, हमें यह समझना होगा कि ऐसा कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है जो किसी भी तरह धर्मांतरणों को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित करता है या इसके दिशानिर्देश प्रदान करता है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी मंशा नहीं रही है। कानून निर्माताओं ने निम्नलिखित विधेयकों के माध्यम से धर्मांतरण-विरोधी कानून लाने के प्रयास किए हैं: 1954 का भारतीय धर्मांतरण (नियंत्रण और पंजीकरण) विधेयक; पिछड़ा समुदाय (धार्मिक सुरक्षा) विधेयक 1960 और धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक 1978। 2015 में, केंद्रीय कानून मंत्री ने कहा कि जबरन और धोखाधड़ी से धर्मांतरण के विरुद्ध एक राष्ट्रीय कानून संभव नहीं था क्योंकि कानून और व्यवस्था संविधान के तहत राज्य का विषय है और केवल राज्य सरकारें ही ऐसे कानून बना सकती हैं।[xi] इसलिए, संसद ने धर्म के आधार पर धर्मांतरण को नियंत्रित करने के लिए कोई केंद्रीय कानून पारित नहीं किया है।

भारत के विधि आयोग ने दूसरे धर्म में धर्मांतरण, पुन: धर्मांतरण - सबूत का साधन[xii] पर आधारित अपनी 235वीं रिपोर्ट में, इस बात पर विचार किया कि कोई भी व्यक्ति यह कैसे साबित कर पाएगा कि उसने दूसरे धर्म में धर्मांतरण कर लिया है। यद्यपि आयोग के समक्ष यह मुद्दा धर्मांतरण के सबूत के बारे में था लेकिन इसमें एक प्रक्रिया तैयार करने की आवश्यकता थी, आयोग को ऐसा करना मुश्किल और अवांछनीय लगा। यहाँ आयोग की टिप्पणी का एक अंश है:

किसी व्यक्ति का एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण करना मुख्य रूप से उस व्यक्ति के इस विश्वास का परिणाम है कि उसने जिस धर्म में जन्म लिया वह उसकी - आध्यात्मिक या तार्किक उपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। धर्मांतरण इस विश्वास का परिणाम भी हो सकता है कि जिस दूसरे धर्म को व्यक्ति अपनाना चाहता है, वह उसकी आध्यात्मिक कल्याण का बेहतर ध्यान रखेगा या किसी तरह से उसकी उचित आकांक्षाओं को पूरा करेगा। कई बार दूसरे धर्म में धर्मांतरण करने का कोई तर्कसंगत कारण खोजना कठिन हो सकता है। धर्मांतरण के कारण या औचित्य को तर्कसंगतता या तर्कशीलता के मानकों से नहीं आंका जा सकता है।”

धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म परिवर्तन का अधिकार" (2003) पर आधारित अपने लेख में उपरोक्त विचारों का उल्लेख करते हुए, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष एम. एन. राव ने इस रिपोर्ट के प्रकाशन के समय निम्नलिखित प्रासंगिक टिप्पणियां कीं:

“धर्मांतरण का अधिकार का अर्थ है किसी व्यक्ति के एक धर्म को छोड़ने और दूसरे को स्वेच्छा से अपनाने का व्यक्तिगत अधिकार। इस तरह एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन आवश्यक रूप से एक व्यक्ति के इस विश्वास का परिणाम होना चाहिए कि वह जिस धर्म में जन्मा था वह उसकी आध्यात्मिक या तार्किक अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। कई बार यह एक व्यक्ति के अपने ही धर्म के सिद्धांतों और प्रथाओं की कठोरता के कारण उसके अपने धर्म में आस्था खोने का परिणाम भी हो सकता है। कई बार व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा में ही पूरी तरह से विश्वास खो देता है और नास्तिकता की ओर चला जाता है। उपरोक्त कारणों में से किसी एक परिणाम से हुआ धर्म परिवर्तन, ‘धर्मांतरण के अधिकार’” के दायरे में आता है।

धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया जटिल है क्योंकि इसके लिए किसी व्यक्ति की अंतिम स्वीकृति की आवश्यकता होती है, भले ही उस व्यक्ति को संयोग या मजबूरी से यह समझ प्राप्त हुई हो। एक अनुष्ठान केवल प्रतीकात्मक होता है और जब तक व्यक्ति में वास्तविक विश्वास न हो इसका कोई महत्व नहीं है। व्यक्तिगत कानूनों के मामलों में, जैसे कि विवाह या उत्तराधिकार, या जब कोई पुरुष या महिला ने अपना धर्म  बदल लिया हो और उस समुदाय को प्रदान किए गए किसी भी लाभ का फायदा उठाना चाहता हो, तब किसी विशेष धर्म से संबंधित होने या उसका पालन करने का प्रमाण प्रस्तुत करना एक आवश्यकता हो सकती है। जब राज्य धर्मनिरपेक्ष रहे और नागरिकों के व्यक्तिगत क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे, केवल तभी व्यक्ति भी कानून के तहत सुरक्षित रहेगा।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने के.एस. में पुट्टस्वामी मामले के निर्णय में[xiii], निजता की धारणा को मानवीय गरिमा की आंतरिक भावना के रूप में प्रकाश डाला, अर्थात यह अकेले रहने का अधिकार है:

“निजता व्यक्ति के लिए एक निजी स्थान के आरक्षण को निर्धारित करती है, जिसे अकेले रहने के अधिकार के रूप में वर्णित किया गया है। यह अवधारणा व्यक्ति की स्वायत्तता पर आधारित है। किसी व्यक्ति की चुनाव करने की क्षमता मानव व्यक्तित्व के मूल में निहित है। निजता की धारणा व्यक्ति को उस मानवीय तत्व पर जोर देने और नियंत्रित करने में सक्षम बनाती है जिसे व्यक्ति के व्यक्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता। मानव व्यक्तित्व की पवित्र प्रकृति मानव जीवन के घनिष्ठ मामलों पर निर्णय लेने की क्षमता में प्रकट होती है। व्यक्ति की स्वायत्तता उन मामलों से जुड़ी होती है जिन्हें निजी रखा जा सकता है। ये ऐसी चिंताएं हैं जिन के आधार पर निजता की उचित अपेक्षा टिकी हुई है। शरीर और मन मानव व्यक्तित्व के ऐसे तत्व हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। शरीर की शुद्धता और मन की पवित्रता का अस्तित्व इस आधार पर हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास एक निजी स्थान को संरक्षित करने की ऐसी अपरिहार्य क्षमता और अधिकार हो जिसमें मानव व्यक्तित्व विकसित हो सकता है। चुनाव करने की क्षमता के बिना, व्यक्तित्व की पवित्रता पर संदेह बना रहेगा। निजता के क्षेत्र को मान्यता देना केवल इस बात की स्वीकृति है कि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास की दिशा का मानचित्र बनाने और उस पथ पर आगे बढ़ने का अधिकार होना चाहिए। इसलिए निजता स्वयं मानवीय गरिमा का एक सिद्धांत है। विचार और व्यवहार शैली जो कि किसी व्यक्ति के लिए निजी हैं, निजता के एक ऐसे क्षेत्र के हकदार हैं जहाँ व्यक्ति सामाजिक अपेक्षाओं से मुक्त हो। निजता के उस क्षेत्र में, व्यक्ति को दूसरों द्वारा आँका नहीं जाता। निजता प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम बनाती है जो मानव व्यक्तित्व में व्यक्त होते हैं। यह व्यक्तियों को एकरूपता की सामाजिक मांगों के विरुद्ध अपनी आस्थाओं, सोच, अभिव्यक्तियों, विचारों, विचारधाराओं, पसंद और चुनावों को सुरक्षित रखने में सक्षम बनाता है। निजता विविधता, यानी व्यक्ति के अलग रहने के अधिकार और अपना एकांत क्षेत्र बनाकर समाज के अनुरूप बनने दबाव के विरुद्ध खड़े होने की आंतरिक पहचान है। निजता व्यक्ति को उन मामलों में प्रचार की खोजी चकाचौंध से बचाती है जो उसके जीवन के लिए व्यक्तिगत हैं। निजता व्यक्ति से जुड़ी हुई होती है न कि उस स्थान से जहाँ इसका कोई सम्बन्ध हो। निजता सम्पूर्ण स्वतंत्रता की नींव है क्योंकि निजी स्थान में व्यक्ति यह तय कर सकता है कि स्वतंत्रता का सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाए। व्यक्तिगत गरिमा और निजता मिश्रित संस्कृति के ताने-बाने में विविधता के धागे से बुने गए ढांचे के भीतर अटूट रूप से जुड़ी हुई हैं।

भारत के संविधान के कानून निर्माताओं और गठन करने वालों की मंशा

धर्म के मामलों में हस्तक्षेप को कम करने की जरूरत को उसी समय पहचान लिया गया था जब संविधान सभा में बहस हुआ करती थीं, जिसकी स्थापना 1946 में हुई थी, और 1976 में, प्रस्तावना के अंतिम संशोधन में इस बात पर तब फिर से जोर दिया गया, जब इसमें 'धर्म निरपेक्ष' शब्द जोड़ दिया गया।

एक धर्मनिरपेक्ष राज्य और सभी के प्रतिनिधित्व की प्रणाली स्थापित करने के लिए संविधान निर्माताओं की मंशा को सर्वोच्च न्यायालय ने एस. आर. बोम्मई मामले[xiv] में अपने ऐतिहासिक फैसले में समुचित रूप से मान्यता दी है। न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा, कि यह पहले से ही संवैधानिक दर्शन में अंतर्निहित थी:

“28. ... बहस के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि धर्मनिरपेक्षता एक आदर्श है जिसे हासिल किया जाना चाहिए और धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना धर्म का कार्य है, बहुसंख्यक समुदाय के लिए सब बातों से ऊपर धर्म का कार्य है क्योंकि उन्हें यह दिखाना होगा कि वे दूसरों के प्रति  दायित्वपूर्ण, निष्पक्ष और उचित तरीके से व्यवहार कर सकते हैं । जब कुछ क्षेत्रों से आपत्ति दर्ज कराने की मांग की गई। तब पंडित लक्ष्मीकांत मित्रा ने समझाते हुए कहा:

धर्म निरपेक्ष राज्य से, जैसा कि मैं समझता हूँ, इसका अर्थ यह है कि राज्य धार्मिक आस्था के किसी विशेष रूप को अपनाने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध धर्म या समुदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। इसका अर्थ यह है कि राज्य में किसी भी धर्म विशेष को किसी भी राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। राज्य दूसरे धर्मों के बहिष्कार या पसंद के आधार पर किसी विशेष धर्म की स्थापना, संरक्षण या समर्थन नहीं करेगा और यह भी कि राज्य में किसी भी नागरिक के साथ कोई तरजीही व्यवहार नहीं किया जाएगा या उसके साथ केवल इस आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा कि उसने धर्म के किसी विशेष रूप को अपना लिया है। दूसरे शब्दों में, राज्य के मामलों में किसी धर्म विशेष को तरजीह देने पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया जाएगा। इसे मैं एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का सार मानता हूँ। साथ ही हमें बहुत सावधान रहना चाहिए कि हमारे इस देश में हम किसी भी व्यक्ति के किसी धर्म को न केवल अपनाने या अभ्यास करने  बल्कि उसका का प्रचार करने के अधिकार से भी वंचित न करें।”

“संक्षेप में कहें तो स्वतंत्रता के पहले के युग के दौरान और हमारे अपने आप को संविधान के अधीन करने से ठीक पहले धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की धारणा यही थी। अब हम संविधान के प्रावधानों पर अति संक्षेप में ध्यान दे सकते हैं।”

“29. इस तथ्य के बावजूद कि 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा हमारे संवैधानिक दर्शन में अत्याधिक अंतर्निहित थी। 'धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संभवतः जानबूझकर परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि यह बहुत ही लचीला शब्द है जिसकी सटीक परिभाषा संभव नहीं है और शायद इसे अपरिभाषित छोड़ा जाना ही उत्तम है। इस संशोधन द्वारा जो बातें अस्पष्ट थीं उन्हें स्पष्ट कर दिया गया। प्रस्तावना में ही विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता की बात की गई थी। इस स्वतंत्रता को प्रदान करते हुए प्रस्तावना में पद और अवसर की समानता का वचन दिया गया था। इसमें भाईचारे को बढ़ावा देने की भी बात कही गई थी, जिससे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित की जा सके। अपने नागरिकों को विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करते हुए, संविधान ने धर्म इत्यादि के आधार पर भेदभाव को घिनौना कहा, लेकिन अनुच्छेद 15 और 16 के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष उपचार की अनुमति दी। अगले अनुच्छेद 25 में सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के तहत आने वाले सभी मामलों में प्रावधान किया गया कि सभी व्यक्तियों को विवेक की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार होगा ... ”

भारत में सभी कानूनों को अपनी शक्ति संविधान से मिलती है और उन्हें इसके अनुच्छेदों में निर्धारित संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। संविधान को संविधान सभा द्वारा बनाया गया था और इसे इसके लोगों द्वारा इसकी प्रस्तावना में मौजूद घोषणा के साथ अपनाया गया था। इसलिए, कानूनों और नियमों को इस परीक्षा का सामना करने की आवश्यकता पड़ती है कि कहीं वे संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं करते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के लिए यह परीक्षा अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत आती है।

धर्मांतरण पर भारत के संविधान की राय 

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, भारत में धार्मिक स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत आता है। हालाँकि, यह धर्मांतरण के मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं। दिसम्बर 9, 1946[xv] को संविधान सभा की बहस के बाद, उपनियम 17 को जोड़ दिया गया और इसमें लिखा था: “दबाव या अनुचित प्रभाव से एक धर्म से दूसरे धर्म में किए गए धर्मांतरण को कानून द्वारा मान्यता नहीं दी जाएगी।” इसलिए इसे मौलिक अधिकार से बाहर कर दिया गया और विधायिका पर छोड़ दिया गया। आखिरकार अनुच्छेद 25 को “अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता” का नाम दे दिया गया और यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन आने वाले भारत के सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन देता है।

राज्य उन गतिविधियों को विनियमित कर सकता है जो आर्थिक, वाणिज्यिक या राजनीतिक प्रकृति की हैं, भले ही वे धार्मिक अभ्यास से जुड़ी हुई ही क्यों न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने, हिंदू धार्मिक निधि आयुक्त, मद्रास बनाम श्री लक्ष्मींद्र तीर्थ स्वामीयर[xvi]के मामले में अपने फैसले में, टिप्पणी की:

“हमारे संविधान के तहत दिया गया आश्वासन न केवल धार्मिक राय की स्वतंत्रता की रक्षा करता है बल्कि यह एक धर्म के अनुसरण में किए जाने वाले कार्यों की भी रक्षा करता है और यह अनुच्छेद 25 में “धर्म के अभ्यास” अभिव्यक्ति के उपयोग से स्पष्ट हो गया है। ऑस्ट्रेलिया के संविधान की धारा 116 के प्रावधान पर बात करते समय, जो राष्ट्रमंडल को अन्य बातों के साथ-साथ "किसी भी धर्म के स्वतंत्र अभ्यास" को प्रतिबंधित करने से रोकता है, ऑस्ट्रेलिया के लैथम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं (1): “कई बार धार्मिक स्वतंत्रता के विषय पर चर्चा में यह सुझाव दिया जाता है कि, यद्यपि नागरिक सरकार को धार्मिक राय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, फिर भी वह धार्मिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन किए बिना अपनी मर्जी से धार्मिक विश्वास के अनुसरण में किए गए किसी भी कार्य से निपट सकता है। मुझे लगता है कि इस फर्क को धारा 116 की व्याख्या के लिए प्रासंगिक बनाए रखना मुश्किल है। यह धारा स्पष्ट शब्दों में धर्म के अभ्यास को संदर्भित करती है, और इसलिए इसका उद्देश्य किसी भी राष्ट्रमंडल के ऐसे कानूनों के संचालन से रक्षा करना है जो धर्म के अभ्यास को लेकर किए जाते हैं। इस प्रकार यह धारा राय की स्वतंत्रता की रक्षा करने से बहुत आगे निकल जाती है। यह धर्म के भाग के रूप में धार्मिक विश्वास के अनुसरण में किए गए कार्यों की रक्षा भी करती है।” ये टिप्पणियाँ भारतीय संविधान द्वारा आश्वासित धर्म की सुरक्षा पर पूरी तरह से लागू होती हैं। सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, और स्वास्थ्य के आधार पर अनुच्छेद 25 और 26 दोनों के तहत धर्म के स्वतंत्र अभ्यास पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाने की अनुमति दी गई है। अनुच्छेद 25 का उपनियम (2) (ए) किसी भी ऐसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक और अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने या प्रतिबंधित करने के राज्य के अधिकार को सुरक्षित रखता है जो धार्मिक अभ्यास से  जुड़ी हुई हो सकती हैं और उप-खंड (बी) के माध्यम से राज्य को एक और अधिकार दिया गया है जिसके तहत राज्य सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए कानून बना सकता है, भले ही ऐसा करके वह धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप ही क्यों न करता हो।...  अनुच्छेद 25(2)(ए) का विचार ऐसी धार्मिक प्रथाओं का राज्य द्वारा नियंत्रित करना नहीं है, जिनकी स्वतंत्रता का आश्वासन संविधान द्वारा दिया गया है,  सिवाय इसके कि जब वे सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता के विपरीत हों, लेकिन ऐसी गतिविधियों नियंत्रित करना उसका कर्तव्य है जो अपने चरित्र में आर्थिक, वाणिज्यिक या राजनीतिक हैं, भले ही धार्मिक प्रथाओं से क्यों न जुड़ी हुई हों।”

उपसंहार  

धर्म परिवर्तन का अधिकार अनुच्छेद 25 में अंतःकरण की स्वतंत्रता में निहित है। भारत, जिसने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूडीएचआर) के प्रारूपण में सक्रिय रूप से भाग लिया और उस पर हस्ताक्षर किए थे, उसे यह स्वीकार करना चाहिए कि विचार, अंतःकरण और धर्म की स्वतंत्रता में धर्म या आस्थाओं को बदलने का अधिकार शामिल है, जिसका उल्लेख यूडीएचआर के अनुच्छेद 18 में स्पष्ट रूप से  किया गया है। धार्मिक स्वतंत्रा पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति द्वारा प्रकाशित एक लेख, जिसका शीर्षक सीसीपीआर सामान्य टिप्पणी संख्या 22 अनुच्छेद 18 (विचार, अन्तः करण या धर्म की स्वतंत्रता)[xvii] है, में यूडीएचआर के अनुच्छेद 18 के भीतर निहित गहराई और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध के अनुच्छेद 19 (1) के तहत हस्तक्षेप के बिना प्रत्येक व्यक्ति के राय रखने के अधिकार की बिना शर्त सुरक्षा करने को मान्यता दी है। लेख में लिखा गया है:

“अनुच्छेद 18 में धर्म या विश्वास को प्रकट करने की स्वतंत्रता और  विचार, अंतः करण, धर्म या आस्था की स्वतंत्रता के बीच फर्क किया गया है। इसमें विचार और अंतःकरण की स्वतंत्रता या अपनी पसंद के धर्म या विश्वास को मानने या अपनाने की स्वतंत्रता पर किसी भी तरह की सीमा की अनुमति नहीं दी गई है। इन स्वतंत्रताओं को बिना शर्त सुरक्षित रखा गया है, जैसा कि अनुच्छेद 19.1 में सभी को हस्तक्षेप के बिना राय रखने का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 18.2 और 17 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को अपने विचारों को प्रकट करने या किसी धर्म या आस्था का पालन करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।”

पाद टिप्पणी

[i] https://thewire.in/communalism/love-jihad-anti-muslim-history-sangh-parivar

[ii] https://indianexpress.com/article/opinion/columns/love-jihad-women-freedom-the-love-jihad-spectre-7049722/

[iii] https://www.uscirf.gov/sites/default/files/Tier2_INDIA.pdf

[iv] https://www.ndtv.com/india-news/up-love-jihad-law-must-be-struck-down-immediately-justice-ap-shah-2340505

[v] https://scroll.in/latest/982125/love-jihad-ups-law-has-many-defects-cannot-be-sustained-says-ex-sc-judge-madan-lokur

[vi] https://www.thehindu.com/news/national/other-states/mp-court-acquits-8-christians-of-forced-conversion-charges/article30882605.ece

[vii] https://thewire.in/communalism/muslim-teenager-in-up-arrested-under-love-jihad-law-for-walking-with-a-hindu-friend

[viii] https://www.theguardian.com/world/2020/dec/14/muslims-targeted-under-indian-states-love-jihad-law

[ix] 1977 Volume 1 Supreme Court Cases 677

[x] 2017 Volume 10 Supreme Court Cases 1

[xi] https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/anti-conversion-laws-in-india-states-religious-conversion-1752402-2020-12-23

[xii] https://lawcommissionofindia.nic.in/reports/report235.pdf

[xiii] 2017 Volume 10 Supreme Court Cases 1

[xiv] 1994 Volume 3 Supreme Court Cases 1

[xv]http://164.100.47.194/Loksabhahindi/cadebatefiles/cadebates.html

[xvi] All India Reporter 1954 Supreme Court 282

[xvii] https://www.refworld.org/docid/453883fb22.html