भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और जनजातीय अधिकार
भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती है ताकि सभी नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता प्राप्त हो सके और देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा मिले। प्रस्तावना का सार भारत की बाहुल्य विविध संस्कृतियों के साथ-साथ देश की जनजातीय आबादी में भी परिलक्षित होता है। संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक होते हुए भी, जनजातीय आबादी एक व्यापक विविधता प्रदर्शित करती है जो भाषा और भाषाई लक्षणों, जीवन की पारिस्थितिकी व्यवस्था, भौतिक विशेषताएं, जनसंख्या का आकार, संस्कृति-संक्रमण के प्रभाव, आजीविका के मूल साधन, विकास और सामाजिक स्तरीकरण के क्षेत्रों में आपस में भिन्न है।
- अनुसूचित जनजातियों की धार्मिक पहचान का परिभाषण
- ईसाई धर्म के साथ भारत में अनुसूचित जनजाति का संघर्ष
- निष्कर्ष
२०११ की जनगणना के अनुसार ७०५ अनुसूचित जनजातियाँ भारत की जनसंख्या का ८.६ प्रतिशत हैं।
भारतीय संदर्भ में, "जनजाति" शब्द को कभी भी संतोषजनक रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। आदिवासियों को पहले "पिछड़ा वर्ग" माना जाता था, और १९१९ तक, उन्हें "शोषित वर्ग" कहा गया। जनगणना ने आदिवासियों के लिए एक अलग शब्दावली बनायी। उन्हें १९३१ की जनगणना में "आदिम जनजातियों" के रूप में, १९४१ की जनगणना में "जनजातियों" के रूप में और १९५१ की जनगणना में "अनुसूचित जनजातियों" के रूप में संदर्भित किया गया था। संविधान में भी जनजातीय समुदायों को "अनुसूचीत जनजाति" के रूप में जाना जाता है। हिंदी भाषा में, "अनुसूचित जनजातियों" के लिए प्रयुक्त पर्यायवाची शब्द हैं "आदिवासी," "वनवासी," और "आदिमजति।"
१९५० के राष्ट्रपति के आदेश के साथ, संविधान के अनुच्छेद ३६६ (२५) ने अनुसूचित जनजातियों को कुछ ऐसे परिभाषित किया है, ““अनुसूचित जनजातियों” से ऐसी जनजातियां या जनजाति या समुदाय अथवा ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों के भाग या उनमें के यूथ अभिप्रेत हैं जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद ३४२ के अधीन अनुसूचित जनजाति समझा जाता है।” अनुच्छेद ३४२ अनुसूचित जनजातियों को निर्दिष्ट करने के लिए अपनाई जाने वाली एक प्रक्रिया निर्धारित करता है। अनुसूचित जनजाति के रूप में एक समुदाय के विनिर्देशन के लिए दिए गए मानदंड में आदिम लक्षणों, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, पिछड़ापन और बाहरी समुदाय के साथ संपर्क से कतराने जैसी प्रवित्तियाँ शामिल हैं।इस कसौटी को संविधान में लिखा नहीं गया है, किंतु यह एक स्थापित मान्यता बन चुकी है।
अनुसूचित जनजातियों की सूची राज्य / केंद्रशासित प्रदेश के लिए विशिष्ट होती है। ऐसा सम्भव है कि एक राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित एक समुदाय को दूसरे राज्य में वही दर्जा ना मिले। आंध्र प्रदेश सरकार बनाम श्रीमती दसारी सुब्बायम्मा और अन्य के मुक़द्दमें में, अदालत का पक्ष था कि "एक जनजाति से होना जन्म का मामला है; पसंद का नहीं - और न ही कानून का।"
आजादी के पहले से ही अनुसूचित जनजातियों के प्रति हो रहे भेदभाव को मद्देनज़र रखते हुए, संविधान में उनकी उन्नति और विकास के लिए कई सुरक्षा उपायों का प्रावधान किया गया है।
इस लेख का उद्देश्य उस द्वेषभाव को उजागर करना है जो अनुसूचित जनजातियों को भारत में निरंतर सहन करना पड़ता है , विशेष रूप से उनके ईसाई धर्म के कारण, जो धर्म और आदिवासी पहचान के बीच एक परस्पर संबंध को दर्शाता है।
अनुसूचित जनजातियों की धार्मिक पहचान का परिभाषण
संविधान में अनुच्छेद २५ (१) के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है और यह अनुसूचित जनजातियो पर भी पूरी तरह से लागू होता है कि वो किसी भी धर्म का अभ्यास, प्रचार और प्रसार करने के लिए स्वतंत्र हैं। अनुसूचित जनजाति की स्थिति धार्मिक पहचान से इतर मौजूद है। अनुसूचित जनजाति की जनगणना परिभाषा इस प्रकार है:
१९५१ की अनुसूचित जनजातियों में जनजातियों या जनजातीय समुदायों या समूहों के कुछ हिस्सों को रखा गया था जो संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, १९५० में, और संविधान (अनुसूचित जनजाति) (भाग C राज्य) आदेश १९५१ C में निर्दिष्ट थीं. अनुसूचित जनजाति के लोग विभिन्न धर्मों से संबंधित हैं। यह तथ्य कि अनुसूचित जनजाति किसी भी धर्म से संबंधित हो सकती है, को १९७१, १९८१, १९९१ और २००१ की जनगणना परिभाषाओं में विशेष रूप से स्थान मिला है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने, कमिश्नर, हिंदू धार्मिक निधि मद्रास बनाम श्री शिरूर मठ के श्री लक्ष्मींद्र तीर्थ स्वामीअर के मुक़द्दमे में निम्नलिखित शब्दों में धर्म को परिभाषित किया है:
“धर्म निश्चित रूप से व्यक्तियों या समुदायों के साथ विश्वास का विषय है और यह आवश्यक रूप से ईश्वरवाद नहीं है। भारत में बौद्ध और जैन धर्म जैसे प्रसिद्ध धर्म हैं, जो ईश्वर या किसी ईश्वरीय प्रथम कारण को नहीं मानते हैं। एक धर्म निस्संदेह विश्वास या सिद्धांत की प्रणाली में अपना आधार रखता है, जो उन लोगों द्वारा माना जाता है जो उस धर्म को अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए अनुकूल मानते हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि धर्म कुछ और नहीं बल्कि एक सिद्धांत या विश्वास है। एक धर्म अपने अनुयायियों को स्वीकार करने के लिए न केवल नैतिक नियमों की एक संहिता का निर्माण करता है, बल्कि यह अनुष्ठानों और पालन समारोहों और पूजा के तरीकों को निर्धारित कर सकता है जिन्हें धर्म के अभिन्न अंग के रूप में माना जाता है, जिसका अवलोकन भोजन और पोशाक के मामलों तक भी विस्तारित हो सकता है।"
अनुसूचित जनजाति के लोग देश में संगठित धर्मों के किसी विशेष रूप के साथ खुद को नहीं जोड़ते। उनकी धार्मिक अवधारणाएं, शब्दावली और प्रथाएं देश भर में सैकड़ों जनजातियों के बीच भिन्न हैं। उनकी धार्मिक अवधारणाओं में प्रकृति, स्थानीय पारिस्थितिक प्रणालियों के साथ-साथ आध्यात्मिक अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों का अनोखा मेल देखने को मिलता है। आदिवासी समूहों में से एक, संथाल जनजाति के लोगों की अपनी जीवन शैली है जिसमें वो अपने प्रथागत जनजातीय विश्वास के अनुसार विवाह और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में सभी विशेषाधिकार रखते है।
भारत में अनुसूचित जनजातियों के बीच ईसाई धर्म का आगमन ब्रिटिश शासन से जुड़ा हुआ है, जब १८१३ में ईसाई धर्म प्रचारकों ने (मिशनरीज़) असम के खासी लोगों, १८५० में छोटानागपुर के उरांव लोगों, और १८८० में मध्य प्रदेश के भील लोगों तक पहुँचना शुरू किया।
उदाहरण के लिए, झारखंड मुख्य रूप से आदिवासी राज्यों में से एक है, जिसमें २६.३% निवासी आदिवासी हैं। यह राज्य अनुसूचित जनजाति की राष्ट्रीय जनसंख्या में ८.४% का योगदान देता है। ईसाई इस राज्य की जनसंख्या का ४.३% हैं। झारखंड में १९ वीं शताब्दी के बाद से ही, विशेष रूप से छोटानागपुर क्षेत्र में, मिशनरी कल्याण कार्य का इतिहास रहा है। आदिवासी विकास के लगभग सभी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की भूमिका व्यापक और अत्यधिक दिखाई देती है, विशेषतः शिक्षा के क्षेत्र में जिसके विकास में मिशनरी कार्यों ने काफ़ी बड़ा योगदान दिया है। समाज में सबको समान मानते हुए, ईसाई मिशनरी एक समतावादी समाज के सिद्धांत में विश्वास करते हैं, और इसकी स्थापना हेतु समाज का हिस्सा बन कर कार्य करते हैं। १९५२ में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति क्षेत्र सम्मेलन में दिए गए भाषण में, भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने कहा:
“ईसाई मिशनरी विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों में गए और उनमें से कुछ ने तो अपना सारा जीवन व्यावहारिक रूप से वहाँ बिताया… मुझे आदिवासी क्षेत्रों में जाने वाले मैदानी इलाकों के लोगों के कई उदाहरण नहीं मिलते… मिशनरियों ने वहां बहुत अच्छा काम किया और मैं उनकी प्रशंशा करता हूँ।"
छोटानागपुर के आदिवासीयों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों के योगदान की कई शिक्षाविदों ने प्रशंसा की है।
हालाँकि, झारखंड अपने आदिवासी धर्म के लिए भी जाना जाता है, जिसे “सरना” के नाम से जाना जाता है। कई आदिवासी लोगों ने यह भी मांग की है कि सरकार सरना को "अलग धर्म" के रूप में मान्यता दे क्योंकि वे संगठित धर्मों के मुख्य रूपों से अलग अपने अनुरूप धार्मिक मानदंडों और अनुष्ठानों का अभ्यास करते हैं। यद्यपि सरना, जो अपने पूर्वजों और प्रकृति की पूजा करते हैं, उन्हें अलग से नहीं गिना जाता है, वे “अन्य” वर्ग का एक बड़ा हिस्सा हैं, और राज्य की आबादी का ११ से १३ प्रतिशत भाग हैं। सरना समूहों का दावा है कि उनकी वास्तविक संख्या अधिक है, जो की एक अलग श्रेणी के ना होने की वजह से कम नज़र आती है। एक आम धारणा यह है कि संख्या में अल्प होने के बावजूद, ईसाई आदिवासियों की उच्च शिक्षा और नौकरियों तक बेहतर पहुँच है। चाहे आर्थिक असमानताओं हो या विभिन्न धार्मिक समूहों द्वारा नफ़रत फैलाने की कोशिश, सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच विवाद बढ़ता जा रहा है।
अनुसूचित जनजातियों के बीच धर्म के विषय में, ओडिशा के नियामगिरी हिल्स में उद्यम स्थापित करने के लिए खनन कंपनियों को अनुमति देने के संदर्भ में नियामगिरी खनन का मामला चर्चा करने योग्य है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि सरकार को आदिवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों के अलावा उनके धार्मिक और प्रथागत अधिकारों की भी रक्षा करनी चाहिए। मामले में तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद २५ और २६ के तहत अनुसूचित जनजातियों और पारंपरिक वनवासियों को दी गई धार्मिक स्वतंत्रता उन्हें उनके धार्मिक विश्वास के मामलों में न केवल अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार देती है, बल्कि उन सभी अनुष्ठानों का अनुकलन करने का भी अधिकार देती है जो उनकी धार्मिक मान्यताओं का एक अभिन्न अंग हैं।
उपर्युक्त निर्णय यह दर्शाता है कि अनुसूचित जनजातियों को संविधान के भाग ३ के तहत भी रखा गया है और उन्हें अधिकार है कि वो लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्नय के अधीन रहते हुए अपनी पसंद के किसी भी धर्म का स्वतंत्र रूप से अपना सकते है, और उसका आचरण और प्रचार कर सकते हैं।
ईसाई धर्म के साथ भारत में अनुसूचित जनजाति का संघर्ष
१९८९ में दलित और आदिवासी समुदायों को आर्थिक, लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित रहने, कानूनी प्रक्रिया में भेदभाव, शोषण और दुरुपयोग से बचाने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण), या पी.ओ.ए एस.सी और एस.टी, अधिनियम बनाया गया। फिर भी, अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
भेदभाव का एक ऐसा रूप सामाजिक बहिष्कार की प्रथा में स्पष्ट है जिसका आदिवासी ईसाई रोज सामना करते हैं। बहिष्कार की घटनाएँ कुछ बार एक सामाजिक गोष्ठी में ना बुलाए जाने से लेकर कई बार गाँव छोड़ने के लाई बाध्य करने तक मिलती हैं। आजीविका की हानि, विस्थापन और बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जाना कई अन्य मानवाधिकार उल्लंघनो में से हैं जो आदिवासी ईसाई, जो अपने धार्मिक विश्वास के कारण एक गांव के रस्म-रिवाजों का पालन करने से इनकार करते हैं, अक्सर झेलते है। जिन परिवारों का बहिष्कार किया जाता है वे गम्भीर मानसिक आघात से गुजरते है, और अक्सर अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अपने घरों और गांवों को छोड़ देते हैं। यह संविधान के अनुच्छेद २१ और १५ के तहत उनके जीवन के अधिकार का घोर उल्लंघन है।
संविधान सहित विभिन्न विधानों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के हितों की रक्षा की गई है:
अनुच्छेद ४२ अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने से संबंधित है;
अनुच्छेद ३३५ यह बताता है कि केंद्र और राज्य सरकारों के तहत सेवाओं और पदों पर नियुक्तियों के लिए दलितों और आदिवासियों के सदस्यों के दावों पर विशेष विचार किया जाना चाहिए;
अनुच्छेद ३३८ ए यह निर्धारित करता है कि अनुसूचित जनजातियों के लिए एक आयोग होगा, जिसे राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग कहा जाएगा, जो संविधान के तहत अनुसूचित जनजातियों के लिए इस संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन पर निगरानी रखे तथा ऐसे रक्षोपायों के कार्यकरण का मूल्यांकन करे, और उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने की बाबत विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच करें; तथा
अनुच्छेद २४४ (१) के तहत पांचवीं अनुसूची में पूर्वोत्तर भारत के अलावा अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में प्रावधान हैं।
एक अन्य कानून अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम २००६ में प्रभावित किया गया। इसके अलावा, अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को संसद और राष्ट्रीय / राज्य शैक्षिक संस्थानों में भी आरक्षण है।
अनुसूचित जनजातियों की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के बाद अपनी जनजातीय स्थिति को बनाए रखने की प्रक्रिया। भारत में २८ में से सात राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानूनों, जो किसी व्यक्ति को दूसरे धर्म में परिवर्तित होने पर कुछ प्रतिबंध लगाते हैं, के साथ अनुसूचित जनजाति अक्सर अपने ईसाई धर्म के कारण प्रतिकूलताओं और नफ़रत का शिकार होती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने केरल राज्य और अन्य बनाम वी. चंद्रमोहन के मुक़द्दमे में विचार किया कि क्या पीड़िता का पिता, जो केरल की एक अनुसूचित जनजाति, माला आर्यन समुदाय का है, ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के बाद भी प्रतिवादी के खिलाफ पी.ओ.ए एस.सी और एस.टी अधिनियम के तहत आरोपों का लाभ उठा सकता है। न्यायालय ने माना कि एक अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के बाद भी अपनी जनजाति का दर्जा नहीं खोता। कोर्ट ने कहा:
“इससे पहले कि किसी व्यक्ति को संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश, १९५० के दायरे में लाया जा सके, उसका एक जनजाति से संबंधित होना अनिवार्य है। राष्ट्रपति के आदेश का लाभ प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को एक जनजाति के सदस्य होने की शर्त को पूरा करना और जनजाति का सदस्य बने रहना आवश्यक है। यदि एक लंबे समय पहले एक अलग धर्म में परिवर्तन के कारण, वह / उसके पूर्वजों ने रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों और अन्य लक्षणों का पालन नहीं किया है, जो कि जनजाति के सदस्यों द्वारा पालन किए जाने आवश्यकता है, यहां तक कि उन्होंने उत्तराधिकार, विवाह आदि के नियम का भी प्रथागत पालन नहीं किया, तो उन्हें एक जनजाति का सदस्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस मामले में, यह तर्क दिया गया है कि पीड़ित का परिवार लगभग 200 साल पहले परिवर्तित हो गया था और वास्तव में पीड़ित के पिता ने एक रोमन कैथोलिक महिला से शादी की, जिके बाद वह फिर से रोमन कैथोलिक बन गया। इसलिए, इस सवाल पर विचार करना होगा कि क्या परिवार अनुसूचित जनजाति का सदस्य रहा है या नहीं। इस तरह के सवाल को केवल परीक्षण के दौरान ही जाना जा सकता है।”
"इसलिए, हमारा यह विचार के हैं कि यद्यपि कानून के व्यापक प्रस्ताव के रूप में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि केवल धर्म परिवर्तन से व्यक्ति की अनुसूचित जनजाति की पहचान ख़त्म नहीं हो जाती, लेकिन क्या वह उस अनुसूचित जनजाति का सदस्य बना रहता है या नहीं, इसपर विचार करने के लिए उपयुक्त न्यायविधि आवश्यक है क्यूँकि यह सवाल भिन्न मामलों के भिन्न तथ्यों पर निर्भर करेगा। ऐसी स्थिति में, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने दूसरे धर्म को अपनाया है, वह अभी भी सामाजिक निर्बलता से पीड़ित है, और वह अभी भी अपने पुराने समुदाय, जिसका वह हिस्सा था, के रीति-रिवाजों और परंपरा का पालन कर रहा है।"
हालांकि, एम.ए. चंद्रबॉस और अन्य बनाम प्रवेश परीक्षा नियंत्रक और अन्य, जिसमें याचिकाकर्ता ने हिंदू धर्म में पुनः परिवर्तित होने के बाद अनुसूचित जनजाति के सदस्य के रूप में अधिकारों के लाभ का दावा किया था, के मुक़द्दमे में केरल उच्च न्यायालय ने 2015 में माना कि अनुसूचित जनजाति / अनुसूचित जाति का एक सदस्य हिंदू धर्म से ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के बावजूद अनुसूचित जनजाति से जुड़े अधिकारों और लाभों का दावा कर सकता है।
२०१४ की चुनाव याचिका संख्या ३० में, जिसका शीर्षक समीरा पायकारा बनाम अजीत जोगी था, इस सवाल के बारे में कि क्या किसी व्यक्ति की आदिवासी स्थिति धर्मपरिवर्तन के बाद बदलती है, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने ३० जनवरी, २०१९ को माना कि “आदिवासी का दर्जा” ईसाई धर्म में रूपांतरण के बाद भी जारी रहता है।" याचिकाकर्ता ने इस मामले में, अनुसूचित जनजाति-आरक्षित सीट पर प्रतिवादी के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी कि उसके पूर्वजों ने ईसाई धर्म को अपना लिया था और इसलिए, वह अनुसूचित जनजाति का नहीं माना जाना चाहिए। हालाँकि, अदालत ने कहा:
]"यह माना जा सकता है कि भले ही प्रतिवादी ने ईसाई धर्म अपना लिया हो, लेकिन कंवर जनजाति की स्थिति का उसका अधिकार नहीं छीना जा सकता है।"
एक अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित सीट पर उरांव आदिवासी समुदाय से संबंधित एक ईसाई सदस्य के चुनाव के सवाल पर, पटना हाईकोर्ट ने 1964 में एक चुनाव याचिका, कार्तिक उरांव बनाम डेविड मुन्जनी और अन्य, के मुक़द्दमे में एक निर्णायक फैसला दिया। कोर्ट ने माना कि:
“सभी पक्षों द्वारा पेशित सुबूतों पे उपर्युक्त चर्चा के अनुसार यह प्रतीत होता है कि, भले ही एक गैर-ईसाई उरांव कुछ जनजातीय त्योहारों को नहीं मनाता, या कुछ त्याहरो को बाक़ियों से अलग ढंग से मनाता है, इससे उसके आदिवासी होने का अधिकार नहीं छीना जा सकता। यह भी प्रतीत होता है कि ईसाई उरांव आदिवासियों के कुछ ऐसे त्योहारों का भी पालन करते हैं जो ईसाई धर्म के साथ सीधे संघर्ष में नहीं हैं। उपरोक्त उल्लेखित साक्ष्य से जो सबसे महत्वपूर्ण बात सामने आती है, वह यह है कि गैर-ईसाई उरांव परिवर्तित उरांव से आदिवासियों जैसा व्यवहार करने के साथ उन्हें 'क्रिश्चियन ओरांस’ कहकर पुकारते हैं। यह तथ्य कि परिवर्तित उरांव को ‘क्रिश्चियन उरांव’ कहा जाता है, यह दर्शाता है कि वे ओरांस पहले हैं और ईसाई बाद में।"
निष्कर्ष
इसलिए, उपर्युक्त निर्णयों से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी अन्य धर्म में परिवर्तित होने से अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के अधिकारों और लाभों पर प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके बावजूद, आदिवासी ईसाई अपने विश्वास के कारण हमला किए जाने के डर से जीते हैं। ईसाई अनुसूचित जनजातियों के साथ लगातार भेदभाव किया जाता है और उनके मनवाधिकारों और जीवन की गरिमा का हनन करके उनपर दबाव बनाया जाता है कि वह अपने पुराने धर्म में पुनः परिवर्तित हो जाएँ।
अनुच्छेद २५ (१) के तहत संवैधानिक आश्वासन के बावजूद, अनुसूचित जनजातियों की धार्मिक स्वतंत्रता खतरे में बनी हुई है और यह उनके जीवन का एक कठिन संघर्ष है। भारत में अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए कानून को प्रभाव में लाने की आवश्यकता है।